गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 288

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

भागवत तटस्थता तो वह चीज होनी चाहिये जो प्रकृति में भागवत कर्म की नींव हो , जो अहंभाव से कर्म करने की पहले की अवस्था का स्थान ले ले ; भागवत शांति भी वह होनी चाहिये जो भागवत कर्म और शक्तिप्रवाह का आश्रय बने। यह महत् सत्य गीता के वक्ता भगवान् श्रीगुरू बराबर ही अपने सामने रखे हुए थे और इसीलिये वे परमेश्वर के प्रीत्यर्थ यज्ञरूप कर्म करने और परमेश्वर को अपने सब कर्मो का स्वामी मानने की बात पर तथा अवतार - तत्व और दिव्य जन्म के सिद्धांत पर इतना जोर दे रहे थे, पर अभीतक इसे जिस पराशांतिरूपा मुक्ति का होना सबसे पहले आवश्यक है उसके एक गौण भाग के तौर पर ही कहते आये हैं । केवल उन्हीं सत्यों को यहां तक पूर्ण प्रतिपादन किया गया और उनका पूर्ण प्रभाव और आशय प्रकट किया गया जो ब्राह्मी शांति , उदासीनता , समता और एकता अर्थात् अक्षर ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने और उसकी अभिव्यक्ति में साधक हैं। दूसरे महान् और आवश्यक श्रेय और उसी सत्य के पूरक भाग पर अभीतक पूरा प्रकाश नहीं डाला गया है , समय - समय पर उसका संकेतमात्र किया गया है , पर पूर्ण प्रतिपादन नहीं। अब आगे के अध्यायों में उसीको बड़ी शीघ्रता के साथ प्रकट किया जा रहा है।
भगवदवतार जगद्गुरू श्रीकृष्ण , जो इस जगत्कर्म में मानव जीव के सारथी हैं , अपने रहस्य को , प्रकृति के गूढ़तम रहस्य को खोलने की भूमिका ही यहां तक बांधते चले आये हैं। इस भूमिका में उन्होंने एक तार बराबर बजता हुआ रखा है जिसका स्वर उनके समग्र स्वरूप के महान् चरम समन्वय की सूचना और पूर्वाभास बराबर देता रहा है। वह स्वर इस बात की झंकार है कि एक परम पुरूष परमेश्वर हैं जो मनुष्य और प्रकृति के अंदर निवास करते हैं पर प्रकृति और मुनष्य से महान् हैं , आत्मा के निवर्यक्तिक भाव की साधना से ही उनकी उपलब्धि होती है पर वह निव्यक्तिक भाव ही उनकी संपूर्ण सत्ता नहीं है। बार - बार बड़े आग्रह के साथ आनेवाली उस बात का आशय अब यहां आकर खुलता है। ये ही विश्वात्मा और मनुष्य और प्रकृति में निवास करने वाले वह एकमेव परमेश्वर हैं जो रथपर आरूढ़ जगद्गुरू की वाणी के द्वारा यह बताने की भूमिका बांध रहे थे कि मैं सबका जागरित द्रष्टा और सब कार्मो का कर्ता हूं। वे यही बतला रहे थे कि , ‘‘मैं जो तेरे अंदर हूं , जो मानवशरीर में यहां हूं , जिसके लिये यह सब कुछ है और जिसके लिये यह सारा कर्म और प्रयास हो रहा है , वही मैं एक ही साथ स्वयंभू आत्मा और इस अखिल विश्वकर्म का अंतःस्थित गूढ़ तत्व हूं। यह “ अहम् ” ( मैं ) वह महान् अहम् है जिसका विशालतम मानव व्यक्तित्व केवल एक अंश और खंडमात्र आविर्भाव है , स्वयं प्रकृति उसकी एक कनिष्ठ कर्म - प्रणाली है। जीव का स्वामी , अखिल विश्वकर्म का प्रभु मैं ही एकमात्र ज्योति , एकमात्र शक्ति और एकमात्र सत्ता हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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