गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 289

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

तेरे अंदर निवास करने वाला यह परमेश्वर जगद्गुरू है , ज्ञान की उस निर्मल ज्योति को प्रकट करने वाला सूर्य है जिस ज्योति के प्रकाश में तू अपनी अक्षर आत्मा और क्षर प्रकृति के बीच का भेद स्वानुभव से जान लेता है। पर इस प्रकाश के भी परे उसके मूल की ओर देख ; तू उस परम पुरूष को जान लेगा जिसे प्राप्त होकर अपने व्यष्टिभाव और प्रकृति का सारा आध्यात्मिक रहस्य तेरे सामने खुल जायेगा। तब सब भूतों में उसी एक आत्मा को देख , ताकि सबके अंदर तू मुझे देख सके ; सब भूतों में उसी एक आत्मा एवं आत्मसत्ता के अंदर देख ; क्योंकि सबको मेरे अंदर देखने का यही एक रास्ता है ; सबके अंदर एक ब्रह्म को जान जिसमें तू उस ईश्वर को देख सके जो परब्रह्म है। अपने - आपको , अपनी आत्मा को जान ले , अपनी आत्मा बन जा ताकि तू मेरे साथ युक्त हो सके और देख सके कि यह कालातीत आत्मा मेरी निर्मल ज्योति या पारदर्शक परदा है। मैं परमेश्वर ही आत्मा और ब्रह्म का आधारस्वरूप सत्य हूं।” अर्जुन को यह देखना है कि वे ही एक परमेश्वर केवल आत्मा और ब्रह्म का ही नहीं , बल्कि प्रकृति और उसके अपने व्यष्टिगत जीव - भाव का मूलभूत परतर सत्य है , व्यष्टि - समष्टि दोनों का एक साथ ही गूढ़ रहस्य है।
वही भागवत संकल्प - शक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्यापक है और प्रकृति के जो कर्म जीव के द्वारा हैते हैं उनसे यह महान् है , मनुष्य और प्रकृति के कर्म और उनके फल उसीके अधीन हैं । इसलिये अर्जुन को यज्ञ के लिये कर्म करना चाहिये , क्योंकि उसके कर्मो का तथा सभी कर्मो का वही आधारभूत सत्य है। प्रकृति कर्मकत्री है अहंकार नहीं ; पर प्रकृति उन पुरूष की केवल एक शक्ति है जो उसके सब कर्मो , शक्तियों ओर विश्व - यज्ञ के सब कालों के अधिपति हैं। इस प्रकार अर्जुन के सब कर्म उन परम पुरूष के हैं , इसलिये उसे चाहिये कि वह अपने सब कर्म अपने और अतःस्थित भगवान् को समर्पित करे जिनके द्वारा ये सब कर्म भागवत रहस्यमयी प्रकृति के अंदर हुआ करते हैं। जीव के दिव्य जन्म की , अहंकार और शरीर की मत्र्यता से निकल सनातनी ब्राह्मी स्थिति में आ जाने की यह द्विविध अवस्था है - पहले अपने कालातीत अक्षर आत्मस्वरूप के ज्ञान की प्राप्ति है और फिर उस ज्ञान के द्वारा कालातीत परमेश्वर से योगयुक्त होना है , साथ ही उन परमेश्वर को जानना है जो इस विश्व की पहैली के पीछे दिपे हैं , जो सब भूतों और उनकी क्रियाओं में स्थित हैं। केवल इसी रूप से हम अपनी समस्त प्रकृति और सत्ता समर्पित कर उन एक परमेश्वर क साथ , जो दिक्काल के अंदर यह सब कुछ बने हैं , जीते - जागते योग से युक्त होने की अभीप्सा कर सकते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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