गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 296

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग

दार्शनिक भाषा में गीता के इन श्लोकों का यही अभिप्राय हैः परंतु इनका आधार कोई बौद्धिक अनुमान नहीं बल्कि आत्मानुभूति है ; इनसे इन परस्पर - विरोधी सत्यों का जो समन्वय होता है उसका कारण भी यही है कि आत्मचैतन्य के कुछ प्रत्यक्ष अनुभूत सत्यों से ही ये उद्गार वर्तुलाकार निकल पड़े हैं। जगत् में छिपे या प्रकट जो कोई परमात्मा या विश्वात्मा हों उनसे जब हम अपनी विविध चेतना के साथ योग करने का यत्न करते हैं तब हमें किसी न किसी प्रकार का कोई विशिष्ट अनुभव होता है और ऐसे जो अनुभव प्राप्त होते हैं उन्हें विभिन्न बुद्धिवादी विचारक सद्वस्तु के संबंध में अपना - अपना मूल भाव बना लेते हैं। सर्वप्रथम हमें एक ऐसी भगवत्सत्ता का कुछ अधूरा - सा अनुभव होता है जो हम लोगों से सर्वथा भिन्न और महान् है , जिस जगत् में हम लोग रहते हैं उससे भी सर्वथा भिन्न और महान् है ; और यह बात ऐसी ही है - इससे अधिक और कुछ भी नहीं जबतक कि हम अपने प्राकृत स्वरूप में ही रहते और अपने चारों ओर जगत् के प्राकृत रूप को ही देखते हैं। क्योंकि भगवान् का परम स्वरूप जगदातीत है और जो कुछ प्राकृत है वह स्वयंबुद्ध आत्मा की अनंतता से इतर मालूम होता है , मिथ्या नही तो कम - से - कम एक अपर सत्य का केवल प्रतीक - सा प्रतीत होता है।
जब हम केवल इस प्रकार की भेदस्थिति में रहते हैं तब भगवान् को मानो विश्व से पृथक और इतर मानते हैं। इस प्रकार वे केवल इसी अर्थ में पृथक् और इतर हैं कि वे विश्व के परे होने के कारण विश्वप्रकृति और उसकी सृष्टियों के अंदर नहीं हैं , इस अर्थ में नहीं कि ये सब सृष्टियां उनकी सत्ता के बाहर हैं ; क्योंकि सर्वत्र एकमात्र सनातन और सद्रप सत्ता ही है , उसके बाहर कुछ भी नहीं है। भगवत्सत्ता के संबंध में इस प्रथम सत्य को हम तब आत्मबोध के द्वारा अनुभव करते हैं जब हमें यह अनुभव होता है कि हम उन्हींके अंदर रहते और चलते - फिरते हैं , उन्हींके अंदर हमारी सारी सत्ता और सारा जीवन है , चाहै हम उनसे कितने भी भिन्न हों हमारा अस्तित्व उन्हींपर निर्भर है और यह सारा विश्व उन्हीं परमात्मा के अंदर घटित होने वाली एक दृश्य सत्ता और व्यापार है। परंतु फिर इसके आगे , इससे परतर यह अनुभव होता है कि हमारी आत्म - सत्ता उनकी आत्मसत्ता के साथ एक है। वहां हम सर्वभूतों के एकमेव आत्मा को अनुभव करते हैं , हमें उसकी चेतना का अनुभव होता है और उसके प्रत्यक्ष इर्शन भी । तब हम यह नहीं कह सकते न ऐसा सोच सकते हैं कि हम उससे सर्वथा भिन्न हैं ; परंतु आत्मवस्तु और इस स्वतःसिद्ध आत्मवस्तु का जगद्रूप आभास , ये दोनों पदार्थ भिन्न- भिन्न प्रतीत होते हैं - आत्मा में सब कुछ एक अनुभूत होता है और जगद्रूप सब कुछ भिन्न - भिन्न दीखता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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