गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 297

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग

आत्मा के साथ अभेद की ऐकांतिक पराकाष्ठा में यह जगत् स्वपन्वत् और मिथ्यातक अनुभूत हो सकता है। परंतु द्विविध भाव की द्विविध पराकाष्ठा में यह द्विविध अनुभव भी होता है कि भगवान् के साथ हमारा परम स्वतःसिद्ध एकत्व है और साथ ही हम उनक साथ भिन्न रूप से तथा द्विविध संबंधों से युक्त हुए एक ऐसे चिरंतन रूप में रहते हैं जो उन्हींसे निकला हुआ रूप है। वह जगत् और इस जगत् में हमारा रहना हमारे लिये तब भगवान् की आत्मविद् सत्ता का ही एक सतत और वास्तविक रूप बन जाता है। सत्य की इस अपूर्ण अनुभूति में हमारे और भगवान् के बीच तथा सनातन की इन सब चराचर शक्तियों और जगत्प्रकृतिस्थ विश्वात्मा के साथ हमारे व्यवहारों में परस्पर नानाविध भेदसंबंध हुआ करते हैं। ये भेद - संबंध विश्वातीत सत्य से इतर हैं , आत्मचैतन्य के शक्तिविशेष की ये विकृति सृष्टियां हैं ; और चूंकि ये इतर हैं और हैं विकार ही , वे लोग जो विश्वातीत निरपेक्ष ब्रह्म के अनन्य उपासक हैं , इन्हें अपेक्षाकृत अथवा सर्वथा मिथ्या करार देते हैं।
फिर भी ये भगवान् से ही उत्पन्न , उन्हींकी सत्ता से निकले हुए सत्तावान् रूप , न कुछ से निकली हुई कोई मायिक चीज नहीं। क्योंकि आत्मा जहां भी जो कुछ देखती है वह सब यह सदा स्वयं ही है , उसीका प्रतीक है और वह उससे सर्वथा भिन्न कोई और वस्तु नहीं है। हम यह भी नहीं कह सकते कि विश्वातीत परमात्मसत्ता में काई ऐसी वस्तु ही नहीं है जो इन सब संबंधों से किसी प्रकार का मेल खाती हो। हम यह तो नहीं कह सकते कि ये सब विकार तो उसी मूल से उत्पन्न चेतना के पर उस मूल में कोई ऐसी चीज नहीं है जो किसी प्रकार इन्हें आश्रय देती हो या जो इनके अस्तित्व को युक्ति - युक्त सिद्ध करती हो , कोई ऐसी चीज नहीं जो इन सब रूपों का सनातन सद्रूप और परात्पर मूलतत्व हो।फिर यदि हम एक दूसरे ढंग से आत्मा और आत्मा के इन सब रूपों के भेद को देखें तो ऐसा समझ सकते हैं कि यह आत्मा सबकी धारणकर्तृ है और सबके अंदर वयाप्त हैं , इस तरह हम सर्वत्र अवस्थित आत्मवस्तु का होना मान सकते हैं , फिर भी आत्मा के ये रूप , उसकी सत्ता के ये सब पात्र हमें न केवल आत्मा से भिन्न , न केवल अनित्य पदार्थ ही , बल्कि मिथ्याभास प्रतीत हो सकते हैं। इस प्रकार की अनुभूति में हमें आत्मानुभव तो हुआ , उस अक्षर ब्रह्म का अनुभव हुआ जिसकी साक्षि - दृष्टि में जगत् की सारी क्षमताएं सतत विद्यमान हैं ; यहां अपने अंदर और सब प्राणियों के अंदर अंतर्यामी भगवान् की पृथक , एक साथ या एकीभूत अनुभूति हुई। और फिर भी जगत् हमारे लिये उनकी ओर हमारी चेतना का केवल एक प्रतिभासिक रूप हो सकता है


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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