गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 54

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गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

अर्जुन के चित्त में पहले वही पहला आवेग हुआ था जिसके कारण कुरूक्षेत्र में, अर्थात युद्ध और हत्याकांड के घोर संहार - क्षेत्र में अपने वीर कर्म की दु:खद पराकाष्ठा से उसका मन फिर गया, अब तक उसका जो कर्म - संबधी सिद्धांत था यह लुप्त हो गया और उसको ऐसा बोध होने लगा कि अकर्म अर्थात् जीवन और जीवन की मांगों का त्याग ही एकमात्र उपाय है । परंतु भगवान् गुरू की वाणी उसे जो कुछ करने को कहती है वह जीवन और कर्म का बाह्म संन्यास नहीं है, बल्कि उन पर आंतरिक प्रभुता की स्थापना है। अर्जुन क्षत्रिय है, एक ऐसा रजोगेणी पुरूष है जो अपना राजसिक कर्म एक उच्च सात्विक आदर्श से नियत करता है । इस भीषण सग्राम में , कुरूक्षेत्र के इस महासमर में वह युद्ध का हौंसला लेकर , रणरंग में मस्त होकर आया है, उसे अपने पक्ष के न्यापूर्ण होने का साभिमान विश्वास भी है, वह अपने तेज रथ पर बैठकर शत्रुऔं के बीच हृदयों को अपने युद्ध शंख के विजय निनाद से दहलाता हुआ आगे बढता है ; क्योंकि वह देखना चाहता है कि उसके विरूद्ध खड़े होकर अधर्म का बल बढ़ाने और धर्म, न्याय और सत्य को कुचलकर उनके स्थान में स्वार्थी और उद्दंढ अहंकार की प्रभुता स्थापित करने कौन - कौन राजा आये हैं ।
पर उसका यह विश्वास चूर - चूर हो गया और वह अपने सहज- स्वभाव से तथा जीवन- संबंधी अपने मानसिक आधर से एक भीषण आघात खाकर गिर पडा ;इसका कारण यह हुआ कि राजसिक अर्जुन में तमोगुंण की एक बाढ़ आ गयी और इसने उसको आश्चर्य , शोक, भय, निरूत्साह, विषद, मन की व्याकुलता और अपने ही तर्को के परस्पर- संग्राम द्वारा व्यथित कर इस कार्य से मुहं मोड़ने के लिये उकसाया और वह अज्ञान और जडता में ढूब गया। परिणाम यह हुआ कि वह संन्यास की और मुड़ा । वह सोचने लगा कि इस क्षात्र - धर्म से जिसका फल अविवेक पूर्ण संहार है , प्रभुता, यश और अधिकार के सिद्धांत से होने वाले नाश और रक्तपात से , रक्तरंजित सुखभोग से, न्याय और धर्मविरोधी उपायों से सत्य और न्याय की स्थापना करने से, और एक ऐसे युद्ध के द्वारा सामाजिक विधान की रक्षा करने से जो समाज की प्रक्रिया और परिणाम का विरोधी हो - इन सबकी अपेक्षा तो भीख मांगकर जीने वाले भिक्षुक का जीवन भी अच्छा है। संन्यास का अर्थ है जीवन और कर्म तथा प्रकृति के त्रिगुण का त्याग , किंतु इस त्रिगुण में से किसी एक गुण के द्वारा ही संन्यास की ओर जाना होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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