भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 118

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
आत्मा कर्ता नहीं है
27.प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।
वस्तुतः जब कि सब प्रकार के कार्य प्रकृति के गणों द्वारा किये जा रहे हैं, मनुष्य जिसकी आत्मा अहंकार की भावना से मूढ़ बन गई है, यह समझता है कि ’कर्ता मैं हू’। प्रकृतेः सांख्य में वर्णित प्रधान। [१]यह माया की शक्ति [२] है या सर्वोच्च भगवान् की शक्ति है।[३] भ्रान्त आत्म प्रकृति के कार्यां का अपने ऊपर आरोप कर लेता है। [४] हमारे चेतन अस्तित्व के विभिन्न स्तर हैं और जो आत्म अंहकार बन जाता है, वह कर्मां के कर्तृत्व का आरोप अपने ऊपर कर लेता है और वह यह भूल जाता है कि कार्यों का निर्धारण तो प्रकृति करती है। गीता के मतानुसार, जब अंहकारपूर्ण आत्म पूरी तरह प्रकृति के वश में रहता है, तब वह स्वतन्त्र रूप से कार्य नहीं करता। शरीर, प्राण और मन का सम्बन्ध परिवेश के पहलू से है।
 
28.तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।
परन्तु जो व्यक्ति (आत्मा के) इन दो भेदों के, प्रकृति के गुणों और कार्यों से उनकी भिन्नता के, सच्चे स्वरूप को जानता है और इस बात को समझता है कि केवल गुण ही गुणों पर क्रिया कर रहे हैं, हे महाबाहु (अर्जुन), वह उन कर्मां में आसक्त नहीं होता।
प्रकृति और उसके गुण मानवीय स्वतन्त्रता की सीमाओं,जैसे आनुवंशिकता की शक्ति और परिवेष का दबाव इत्यादि, के प्रतिनिध हैं। अनुभूतिमूलक आत्म कर्मों की उपज है, ठीक वैसे ही जैसे कि ब्रह्माण्ड की सारी प्रक्रिया कारणों की क्रिया का परिणाम है।
 
29.प्रकृतेर्गुणसंमूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।
जो लोग प्रकृति के गुणों के कारण भ्रान्ति में पड़ जाते हैं, वे ही उन गुणों द्वारा उत्पन्न हुए कर्मां में आसक्त होते हैं। पर जो व्यक्ति सम्पूर्ण बात को जानता है, उसे उन अज्ञानियों के मन को विचलित नहीं करना चाहिए, जो कि केवल एक अंश को जानते हैं। हम उन लोगों को विचलित नहीं करना चाहिए, जो प्रकृति की प्रेरणाओं के वशीवर्ती होकर कार्य करते हैं। उन्हें प्रकृति के वशीभूत अंहकार के साथ आत्मा की मिथ्या एकत्व की भावना से शनैः-शनैः मुक्ति दिलाई जानी चाहिए। वास्तविक आत्मा दिव्य, नित्य, स्वतन्त्र और आत्मचेतन है। मिथ्या आत्म वह अहंकार है, जो प्रकृति का एक ऐसा अंश है, जिसमें प्रकृति के कार्य प्रतिबिम्बित हेाते हैं। यहां सांख्य के विश्लेषण के आधार पर सच्चे आत्म को निष्क्रिय बताया गया है, जब कि प्रकृति सक्रिय है। और जब पुरुष अपने -आपको प्रकृति की गतिविधि के साथ एकरूप मान लेता है, तब सक्रिय व्यक्तित्व की भावना उत्पन्न हो जाती है। गीता सांख्य के इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करती कि पूर्ण निष्क्रियता द्वारा पुरुष प्रकृति से दूर हट सकता है। ज्ञान का अर्थ अकर्म भगवद्गीता नहीं है, अपितु इसका अर्थ इस प्रकार का कर्म है, जो ऐसे ढ़ग से किया गया हो,जो मुक्ति की प्राप्ति में बाधा न डाले। यदि हम इस बात को समझ लें कि आत्मा या सच्चा आत्म अनासक्त, शान्त और निष्पक्ष साक्षी-भर है, तब चाहे हम अपूर्णता और कष्ट के विरूद्ध भयंकर युद्ध में भाग लेते रहे और संसार की एकता के लिए कार्य करते रहें, तब भी कोई कर्म हमें नहीं डाल सकता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रकृतिः प्रधानं सत्वरजस्तमसां गुणानां साम्यावस्था।- शंकराचार्य।
  2. प्रधानशब्देन मायाशक्तिरुच्यते। - आनन्दगिरि।
  3. प्रकतेः परमेश्वर्या सत्वरजस्तमोगुणात्मिकायाः देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढ़ामिति श्रुति-प्रसिद्धायाः शक्तेर्गुणैः कार्यकारणसंघातात्मकैः ।- नीलकण्ठ। प्रकृतिर्माया सत्वरजस्तमोगुणमयी मिथ्याज्ञानात्मिका परमेष्वरी शक्तिः। - मधुसूदन।
  4. अनात्मन्यात्माभिमानी। - मधुसूदन।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन