भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 144

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अध्याय-5
सच्चा संन्यास (त्याग) सांख्य और योग एक ही लक्ष्य तक पहुंचाते हैं

  
3.श्रेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काड्क्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।
जो व्यक्ति न किसी वस्तु से घृणा करता है और न किसी वस्तु की इच्छा करता है, यह समझना चाहिए, कि उसमें सदा संन्यास की भावना भरी हुई है; क्यों कि वह महाबाहु (अर्जुन), सब द्वन्द्वों से मुक्त होने के कारण वह बन्धन से सरलता से छूट जाता है। नित्यसंन्यासी: जिसमें सदा संन्यास या त्याग की भावना विद्यमान रहती है; सच्चा कर्म करने वाला (कर्मयोगी) सच्चा त्यागी (नित्यसंन्यासी) भी है, क्यों कि वह कार्य अनासक्त भावना से करता है।[१]
 
4.सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।
संन्यास (सांख्य) और कर्म करने (योग) को पृथक् अज्ञानी लोग बताते हैं, पण्डित लोग नहीं। जो व्यक्ति इनमें से किसी एक में भी भलीभांति जुट जाता है, वह दोनों का फल पा लेता है। इस अध्याय में योग का अर्थ है- कर्मयोग, और सांख्य का अर्थ है- कर्मों के संन्यास-सहित ज्ञानमार्ग ।

5.यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।
कर्मों का त्याग करने वाले मनुष्य जिस स्थिति तक पहुंचते हैं, कर्म करने वाले लोग भी उसी स्थिति तक पहुंच जाते हैं। जो व्यक्ति इस बात को देख लेता है कि संन्यास और कर्म दोनों के मार्ग एक ही हैं, वहीं (सही) देखता है।
अन्यत्र महाभारत में, शान्तिपर्व 305, 19; 316, 4 में मिलता है। [२] सच्चा
संन्यासी वह नहीं है, जो पूर्णतया निष्क्रिय रहता है, अपितु वह है, जिसका कर्म अनासक्ति की भावना से किया जाता है। संन्यास एक मानसिक वृत्ति है, कर्म की इच्छा को त्याग देना; सच्चा कर्म सब इच्छाओं को त्यागकर किया जाने वाला कर्म है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है। तुलना कीजिए: ’’जब ज्ञानी या मूर्ख कर्म कर रहे होते हैं, तब शरीर तो (अर्थात् बाह्य कर्म) दोनों एक ही जैसा होता है, परन्तु आन्तरिक भावना भिन्न होती है।’’[३] महाभारत में कहा गया है कि भागवत-धर्म गुणों की दृष्टि से सांख्य-धर्म के बराबर है। [४]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स कर्मणि प्रवृत्तोअपि नित्यं संन्यासीति ज्ञेयः। - मधुसूदन।
  2. तुलना कीजिए: यदेव योगाः पश्यन्ति तत्सांख्यैरपि दृश्यते । एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स तत्ववित् ।।
  3. प्रज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे, समत्वमभ्येति तनुर्न बुद्धिः । - अविमार, 5, 5
  4. सांख्ययोगेन तुल्यों हि धर्म एकान्तसेवितः। - शान्तिपर्व 348, 71

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