भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 145

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अध्याय-5
सच्चा संन्यास (त्याग) सांख्य और योग एक ही लक्ष्य तक पहुंचाते हैं

  
6.संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।
हे महाबाहु (अर्जुन), संन्यास को बिना योग के प्राप्त कर पाना कठिन है; जो मुनि योग में (कर्ममार्ग में) निष्ठापूर्वक लगा है, वह शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
 
7.योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।
जिस व्यक्ति ने कर्ममार्ग में प्रशिक्षण पाया है और जिसकी आत्मा पवित्र है, जो अपनी आत्मा का स्वामी है और जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, जिसकी आत्मा सब प्राणियों की आत्मा बन गई है, वह कर्म करता हुआ भी कर्मों मे लिप्त नहीं होता। वह आन्तरिक रूप से सब कर्मों को त्याग देता है, बाह्य रूप से नहीं। शंकराचार्य तक ने माना है कि इस प्रकार का कर्म आत्मज्ञान के साथ पूर्णतया संगत है। भले ही वह संसार की एकता के लिए कार्य करता है, फिर भी वह कर्मों के बन्धन में नहीं फंसता। [१]

8.नैव किअिचत्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यअश्रृण्वन्स्पृशज्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपअश्वसन्।।
जो मनुष्य भगवान् के साथ एक हो गया है और जो तत्व को जानता है, वह देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, चखता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ और सांस लेता हुआ यह समझता है कि ’’मैं कुछ नहीं कर रहा। ’’
 
9.प्रलपन्विसृजन्गृहृन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।
बोलते हुए, विसर्जन करते हुए, पकड़ते हुए, आंखें खोलते और बन्द करते हुए वह यह समझता है कि केवल इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों में लगी हुई हैं। हमसे अपने अन्दर विद्यमान आत्मा को अनुभव करने के लिए कहा गया है, जो शुद्ध और मुक्त है और प्रकृति या वस्तुरूपतामक संसार के उपकरणों से बिलकुल पृथक् है। अंहकार के घटक तत्व अस्थायी हैं, एक ऐसा प्रवाह, जो क्षण-क्षण में बदलता है। आत्मता का मिथ्या रूप भरने वाले इन पदार्थों में कोई अपरिवर्तशील केन्द्र या अमर नाभिक नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सः ’’’ लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते, कर्मभिर्वध्यते।

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