महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 79-89
त्रिनवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
ऋषि बोले-भदेर! इस समय हम लोग भूख से व्याकुल हैं और हमारे पास खाने के लिये दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः यदि तुम अनुमति दो तो हम सब लोग इस सरावर से कुछ मृणाल लें लें। यातुधानी बोली- ऋषियों ! एक शर्त पर तुम इस सरोवर से इच्छानुसार मृणाल ले सकते हो। एक-एक करके आओ और मुझे अपना नाम और तात्पर्य बताकर मृणाल ले लो। इसमें विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं है। भीष्मजी कहते हैं-'राजन ! उसकी यह बात सुनकर महर्षि अत्रि यह समझ गये कि ‘यह राक्षसी कृत्या है और हम सब ऋषियों का वध करने की इच्छा से यहां आयी हुई है।’ तथापि भूख से व्याकुल होने के कारण उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया। अत्रि बोले- कल्याणी ! काम आदि शत्रुओं से त्राण करने वाले को अरात्रि कहते हैं और अत् (मृत्यु) से बचाने वाला अत्रि कहलाता है। इस प्रकार मैं ही अरात्रि होने के कारण अत्रि हूं। जब तक जीव को एकमात्र परमात्मा का ज्ञान नहीं होता, तब तक की अवस्था रात्रि कहलाती है। उस ज्ञानावस्था से रहित होने के कारण भी मैं अरात्रि एवं अत्रि कहलाता हूं। सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अज्ञात होनें के कारण जो रात्रि के समान है, उस परमात्म तत्त्व में मैं सदा जाग्रत रहता हूं, अतः वह मेरे लिये अरात्रि के समान है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी मैं अरात्रि और अत्रि (ज्ञानी) नाम धारण करता हूं। यही मेरे नाम का तात्पर्य समझो। यातुधानी ने कहा- तेजस्वी महर्षे ! आपने जिस प्रकार अपने नाम का तात्पर्य बताया है, उसका मेरी समझ में आना कठिन है। अच्छा, अब आप जाइये और तालाब में उतरिये। वसिष्ठ बोले- मेरा नाम वसिष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ होने के कारण लोग मुझे वरिष्ठ भी कहते हैं। मैं गृहस्थ आश्रम में वास करता हूं; अतः वसिष्ठता (ऐश्वर्य-संपत्ति) और वास के कारण तुम मुझे वसिष्ठ समझो। यातुधानी बोली मुने ! आपने जो अपने नाम की व्याख्या की है उसके तो अक्षरों का भी उच्चारण करना कठिन है। मैं इस नाम को नहीं याद रख सकती। आप जाइये तालाब में प्रवेश कीजिये। कश्यप ने कहा- यातुधानी ! कश्य नाम है शरीर का, जो उसका पालन करता है उसे कश्यप कहते हैं। मैं प्रत्येक कुल (शरीर) में अंर्तयामी रूप से प्रवेश करके उसकी रक्षा करता हूं, इसलिये मैं कश्यप हूं। कु अर्थात पृथ्वी पर वम यादि वर्षा करने वाले सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है, इसलिये मुझे कुवम भी कहते हैं। मेरे देह का रंग काश के फूल की भांति उज्वल है, अतः मैं काश्य नाम से भी प्रसिद्व हूं। यही मेरा नाम है। इसे तुम धारण करो। यातुधानी बोली- महर्षे ! आपके नाम का तात्पर्य समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। आप भी कमलों से भरी हुई बावड़ी में जाइये। भारद्वाज ने कहा- कल्याणी ! जो मेरे पुत्र और शिष्य नहीं हैं उनका भी मैं पालन करता हूं तथा देवता, ब्राह्माण, अपनी धर्मपत्नी तथा द्वाज (वर्णसंकर) मनुष्यों का भी भरण-पोषण करता हूं, इसलिये भारद्वाज नाम से प्रसिद्व हूं। यातुधानी बोली- मुनिवर ! आपके नामाक्षर का उच्चारण करने में भी मुझे क्लेश जान पड़ता है, इसलिये मैं इसे धारण नहीं कर सकती। जाइये, आप भी इस सरोवर में उतरिये।
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