महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 90-105
त्रिनवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
गौतम ने कहा- कृत्ये ! मैंने गौ नामक इन्द्रियों का संयम किया है, इसलिये ‘गोदम’ नाम धारण करता हूं। मैं धूम रहित अग्नि के समान तेजस्वी हूं, सबमें समान दृष्टि रखने के कारण तुम्हारे या और किसी के द्वारा मेरा दमन नहीं हो सकता। मेरे शरीर की कांति (गो) अन्धकार को दूर भगाने वाली (अतम) है, अतः तुम मुझे गौतम समझो। यातुधानी बोली- महामुने ! आपके नाम की व्याख्या भी मैं नहीं समझ सकती। जाइये, पोखर में प्रवेश कीजिये। विश्वामित्र ने कहा- यातुधानी ! तू कान खोलकर सुन ले, विश्वदेव मेरे मित्र हैं, गौ और संपूर्ण विश्व का मैं मित्र हूं। इसलिये संसार में विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्व हूं। यातुधानी बोली- महर्षे ! आपके नाम की व्याख्या के एक अक्षर का भी उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। इसे याद रखना मेरे लिये असंभव है। अतः जाइये, सरोवर में प्रवेश कीजिये। जमदग्नि ने कहा- कल्याणी ! मैं जगत अर्थात देवताओं में आहवनीय अग्नि से उत्पन्न हुआ हूं, इसलिये तुम मुझे जमदग्नि नाम से विख्यात समझो। यातुधानी बोली- महामुने ! आपने जिस प्रकार अपने नाम का तात्पर्य बतलाया है, उसको समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। अब आप सरोवर में प्रवेश कीजिये। अरुन्धती ने कहा- यातुधानी ! मैं अरु अर्थात पर्वत, पृथ्वी और द्यूलोक को अपनी शक्ति से धारण करती हूं। अपने स्वामी से कभी दूर नहीं रहती और उनके मन के अनुसार चलती हूं। इसलिये मेरा नामअरुन्धती है। यातुधानी बोली- देवी ! आपने जो अपने नाम की व्याख्या की है उसके एक अक्षर का भी उच्चारण मेरे लिये कठिन है, अतः इसे भी मैं नहीं याद रख सकती। आप तालाब में प्रवेश कीजिये। गण्डा ने कहा- अग्नि से उत्पन्न होने वाली कृत्ये ! गडि़ धातु से गण्ड शब्द की सिद्वि होती है, यह मुख के एक देश-कपोल का वाचक है। मेरा कपोल (गण्ड) ऊंचा है, इसलिये लोग मुझे गण्डा कहते हैं। यातुधानी बोली- तुम्हारे नाम की व्याख्या का उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। अतः इसको याद रखना असंभव है। जाओ, तुम भी बावड़ी में उतरो। पशुसख ने कहा- आग से पैदा हुई कृत्ये ! मैं पशुओं को प्रसन्न रखता हूं और उनका प्रिय सखा हूं; इस गुण के अनुसार मेरा नाम पशुसख है। यातुधानी बोली- तुमने जो अपने नाम की व्याख्या की है, उसके अक्षरों का उच्चारण करना भी मेरे लिये कष्टप्रद है। अतः मैं इसको याद नहीं रख सकती, अब तुम भी पोखर में जाओ। शुनःसख (सन्यासी) ने कहा- यातुधानी ! इन ऋषियों ने जिस प्रकार अपना नाम बताया है, उस तरह मैं नहीं बता सकता। तू मेरा नाम शुनःसख समझ। यातुधानी बोली- विप्रपवर ! आपने संदिग्न वाणी में अपना नाम बताया है। अतः अब फिर स्पष्ट रूप से अपने नाम की व्याख्या कीजिये। शुनःसख ने कहा- मैंने एक बार अपना नाम बता दिया फिर भी यदि तूने उसे ग्रहण नहीं किया तो इस प्रमाद के कारण मेरे इस त्रिदण्ड की मार खाकर अभी भस्म हो जा इसमें विलंब न हो। यह कहकर उस सन्यासी ने ब्रह्मदण्ड के समान अपने त्रिदण्ड से उसके मस्तक पर ऐसा हाथ जमाया कि वह यातुधानी पृथ्वी पर गिर पड़ी और तुरन्त भस्म हो गयी।
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