महाभारत आदिपर्व अध्याय 55 श्लोक 1-16
पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
आस्तीक द्वारा यजमान, यज्ञ, ॠत्विज, सदस्यगण और अग्निदेव की स्तुति-प्रशंसा
आस्तीक ने कहा- भरतवंशियों में श्रेष्ठ जनमेजय ! चन्द्रमा का जैसा यज्ञ हुआ था, वरुण ने जैसा यज्ञ किया था और प्रयाग में प्रजापति ब्रह्माजी का यज्ञ जिस प्रकार समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हुआ था, उसी प्रकार तुम्हारा यह यज्ञ भी उत्तम गुणों से युक्त है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो। भरतकुल शिरोमणि परीक्षित् कुमार ! इन्द्र के यज्ञों की संख्या सौ बतायी गयी है, राजा पुरु के यज्ञों की संख्या भी उनके समान ही सौ है। उन सबके यज्ञों के तुल्य ही तुम्हारा यह यज्ञ शोभा पा रहा है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो । जनमेजय ! यमराज का यज्ञ, हरिमेघा का यज्ञ तथा राजा रन्तिदेव का यज्ञ जिस प्रकार श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न था, वैसे ही तुम्हारा यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो। भरतवंशियों में अग्रगण्य जनमेजय! महाराज गय का यज्ञ, राजा शशबिन्दु का यज्ञ तथा राजाधिराज कुबेर का यज्ञ जिस प्रकार उत्तम विधि-विधान से सम्पन्न हुआ था, वैसे ही तुम्हारा वह यज्ञ है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो । परिक्षित कुमार ! राजा नृग, राजा अजमीढ़ और महाराज दशरथनन्दन श्री रामचंद्रजी ने जिस प्रकार यज्ञ किया था, वैसे ही तुम्हारा यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो । भरतश्रेष्ठ जनमेजय! अजमीढ़वंशी धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठर के यज्ञ की ख्याति स्वर्ग के श्रेष्ठ देवताओं ने भी सुन रक्खी थी, वैसा ही तुम्हारा भी यह यज्ञ है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो। भरताग्रगण्य जनमेजय ! सत्यवतीनन्दन व्यासजी का यज्ञ जिसमें उन्होंने स्वयं सब कार्य सम्पन्न किया था, जैसा हो पाया था, वैसा ही तुम्हारा यह यज्ञ भी है। हमारे प्रियजनों का कल्याण हो । तुम्हारे ये ॠत्विज सूर्य के समान तेजस्वी हैं और इन्द्र के यज्ञ की भांति तुम्हारे इस यज्ञ का भलीभांति अनुष्ठान करते है। कोइ भी ऐसी जानने योग्य वस्तु नहीं है, जिसका इन्हें ज्ञान न हो। इन्हें दिया हुआ दान कभी नष्ट नहीं हो सकता ।। द्वैपायन व्यास जी के समान पारलौकिक साधनों में कुशल दूसरा कोइ ॠत्विज्ञ नहीं है, यह मेरा निश्चित मन हैं। इनके शिष्य ही अपने-अपने कर्मो में निपुण होता, उद्गाता आदि सभी प्रकार के ॠत्विज है, जो यज्ञ कराने के लिये सम्पूर्ण भूमण्डल में विचरते रहते है। जो विभावसु, चित्रभानु, महात्मा, हिरण्यरेता, हविष्यमोजी तथा कृष्णवर्त्मा कहलाते है, वे अग्निदेव तुम्हारे इस यज्ञ में दक्षिणावर्त शिखाओं से प्रज्वलित हो दी हुई आहुति को भोग लगाते हुए तुम्हारे इस हविष्य की सदा इच्छा रखते हैं। इस मृत्युलोक में तुम्हारे सिवा दूसरा कोइ ऐसा राजा नहीं है, जो तुम्हारी भांति प्रजा का पालन कर सके । तुम्हारे धैर्य से मेरा मन सदा प्रसन्न रहता है । तुम साक्षात् वरुण, धर्मराज एवं यम के समान प्रभावशाली हो । पुरुषों में श्रेष्ठ जनमेजय ! जैसे साक्षात बज्रपाणि इन्द्र सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम भी इस लोक में हम प्रजावर्ग के पालक माने गये हो । संसार में तुम्हारे सिवा दूसरा कोइ भूपाल तुम-जैसा प्रजापालक नहीं है । राजन् ! तुम खट्वांग, नाभाग और दिलिप के समान प्रतापी हो। तुम्हारा प्रभाव राजा ययाति और मान्धाता के समान है। तुम अपने तेज से भगवान सूर्य के प्रचण्ड तेज की समानता कर रहे हो। जैसे भीष्मपितामह नें उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था, उसी प्रकार तुम भी इस यज्ञ में परम उत्तम व्रत का पालन करते हुए शोभा पा रहे हो ।महर्षि बाल्मीकि की भांति तुम्हारा अद्भुत पराक्रम तुममें ही छिपा हुआ है। महर्षि वसिष्ठजी के समान तुमने क्रोध को काबू में कर रक्खा है। मेरी ऐसी मान्यता है कि तुम्हारा प्रभुत्व इन्द्र के ऐश्वर्य के तुल्य है और तुम्हारी अंगकान्ति भगवान् नारायण के समान सुशोभित होती है। तुम यमराज की भांति धर्म के निश्चित सिद्वांत को जानने वाले हो। भगवान् श्रीकृष्ण की भांति सर्व गुण सम्पन्न हो। वसुगणों के पास जो सम्पत्तियां हैं, वैसी ही सत्म्पदाओं के तुम निवासस्थान हो तथा यज्ञों की तुम साक्षात निधि ही हो ।। राजन् ! तुम बल में दम्भोभ्दव के समान और अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में परशुराम के सदृश हो। तुम्हारा तेज और्व और त्रित नामक महर्षियों के तुल्य है। राजा भागीरथ की भांति तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है। उग्रश्रवाजी कहते है- आस्तीक के इस प्रकार स्तुति करने पर यजमान राजा जनमेजय, सदस्य, ॠत्विज और अग्निदेव सभी बड़े प्रसन्न हुऐ । इन सबके मनोभावों तथा चेष्टाओं को लक्ष्य करके राजा जनमेजय इस प्रकार बोले ।।
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