महाभारत आदिपर्व अध्याय 56 श्लोक 1-12
षट्पञ्चाशत्तम (56) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
राजा का आस्तीक को वर देने के लिये तैयार होना, तक्षक नाग की व्याकुलता तथा आस्तीक का वर मांगना
जनमेजयने कहा- ब्राह्मणो ! यह बालक है, तो भी वृद्ध पुरुषों के समान बात करता है, इसलिये मैं इसे बालक नहीं, वृद्ध मानता हूं और इसको वर देना चाहता हूं। इस विषय में आप लोग अच्छी तरह विचार करके अपनी सम्मति दें। सदस्य बोले- ब्राह्मण यदि बालक हो तो भी यहां राजाओं के लिये सम्मानीय ही है। यदि वह विद्वान् हो तो कहना ही क्या है? अत: यह ब्राह्मण बालक आज आपसे यथोचित रीति से अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को पाने योग्य है, किंतु वर देने से पहले तक्षक नाग चाहे जैसे भी शीघ्रता पूर्वक हमारे पास आ पहुंचे, वैसा उपाय करना चाहिये। उग्रश्रवाजी कहते है- शौनक ! तदनन्तर वर देने के लिये उद्यत राजा जनमेजय विप्रवर आस्तीक से यह कहना ही चाहते थे कि ‘तुम मुंह मांगा वर मांग लो’ इतने में ही होता, जिसका मन अधिक प्रसन्न नहीं था, बोल उठा- ‘ हमारे इस यज्ञ कर्म में तक्षक नाग तो अभी तक आया ही नहीं। जनमेजय ने कहा- ब्राह्मणो ! जैसे भी यह कर्म पूरा हो जाय और जिस प्रकार भी नाग शीघ्र यहां आ जाय,आप लोग पूरी शक्ति लगाकर वैसा ही प्रयत्न कीजिये, क्योंकि; मेरा असली शत्रु तो वही है। ॠत्विज बोले- राजन् ! हमारे शास्त्र जैसा कहते है तथा अग्निदेव जैसी बात बता रहे है, उसके अनुसार तो तक्षक नाग भय से पीड़ित हो इन्द्र के भवन में छिपा हुआ है। लाल नेत्रों वाले पुराणवेत्ता महात्मा सूतजी ने पहले ही यह बात सूचित कर दी थी। तब राजा ने सूतजी से इसके विषय में पूछा। पूछने पर उन्होंने राजा से कहा- ‘नरदेव ! ब्राह्मण लोग जैसी बात कह रहे हैं, वह ठीक वैसी ही है। राजन्। पुराण को जानकर मैं यह कह रहा हूं कि इन्द्र ने तक्षक को वर दिया है- ‘नागराज ! तुम यहां मेरे समीप सुरक्षित होकर रहो। सर्पसत्र की आग नहीं जला सकेगी’। सह सुनकर यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करने वाले यजमान राजा जनमेजय संतप्त हो उठे और कर्म के समय होता को इन्द्र सहित तक्षक नाग का आकर्षण करने के लिये प्रेरित करने लगे। तब होता ने एकाग्रचित्त होकर मन्त्रों द्वारा इन्द्र सहित तक्षक का आवाहन किया। तब स्वंय देवराज इन्द्र विमान पर बैठकर आकाश मार्ग से चल पड़े । उस समय सम्पूर्ण देवता सब ओर से घेरकर उन महानुभाव इन्द्र की स्तुति कर रहे थे। अप्सराएं, मेघ और विद्याधर भी पीछे आ रहे थे। तक्षक नाग उन्हीं के उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) में छिपा था। भय से उद्विग्न होने के कारण तक्षक को तनिक भी चैन नहीं आता था। इधर राजा जनमेजय तक्षक का नाश चाहते हुए कुपित होकर पुन: मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से बोले। जनमेजय ने कहा- विप्रगण! यदि तक्षक नाग इन्द्र के विमान में छिपा हुआ है तो उसे इन्द्र के साथ ही अग्नि में गिरा दो। उग्रश्रवाजी कहते है- राजा जनमेजय के द्वारा इस प्रकार तक्षक की आहुति के लिये प्रेरित हो होताने इन्द्र के समीपवर्ती तक्षक नाग का अग्नि में आवाहन किया- उसके नाम की आहुति ड़ाली ।
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