महाभारत आदिपर्व अध्याय 56 श्लोक 13-27
षट्पञ्चाशत्तम (56) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
इस प्रकार आहुति दी जाने पर क्षणभर में इन्द्र सहित तक्षक नाग आकाश में दिखायी दिया। उस समय उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। उस यज्ञ को देखते ही इन्द्र अत्यन्त भयभीत हो उठे और तक्षक नाग को वहीं छोड़कर बड़ी घबराहट के साथ अपने भवन को चलते बने। इन्द्र के चले जाने पर नागराज तक्षक भय से मोहित हो मन्त्रशक्ति से खिंचकर विवशता पूर्वक अग्नि की ज्वाला के समीप आने लगा। ॠत्विजों ने कहा- राजेन्द्र ! आपका यह यज्ञ कर्म विधि पूर्वक सम्पन्न हो रहा है। अब आप इन विप्रवर आस्तीक को मनोवाञ्छित वर दे सकते हैं। जनमेजय ने कहा- ब्राह्मणबालक ! तुम अप्रमेय हो- तुम्हारी प्रतिभा की कोइ सीमा नहीं है। मैं तुम-जैसे विद्वान के लिये वर देना चाहता हूं। तुम्हारे मन में जो अभीष्ट कामना हो, उसे बताओ । वह देने योग्य न होगी, तो भी तुम्हें अवश्य दे दूंगा। ॠत्विज बोले- राजन् ! यह तक्षक नाग अब शीघ्र ही तुम्हारे वश में आ रहा है। वह बड़ी भयानक आवाज में चीत्कार कर रहा है। उसकी भारी चिल्लाहट अब सुनायी देने लगी है। निश्चय ही इन्द्र ने उस नागराज तक्षक को त्याग दिया हैं उसका विशाल शरीर मन्त्र द्वारा आकृष्ट होकर स्वर्ग लोक से नीचे गिर पड़ा है। वह आकाश में चक्कर काटता अपनी सुध-बुध खो चुका है और बड़े वेग से लम्बी सांसे छोड़ता हुआ अग्निकुण्ड के समीप आ रहा है । उग्रश्रवाजी कहते है- शौनक ! नागराज तक्षक अब कुछ ही क्षणों में आग की ज्वाला में गिरने वाला था। उस समय आस्तीक ने यह सोचकर कि ‘यही वर मांगने का अच्छा अवसर है’ राजा को वर देने के लिये प्रेरित किया। आस्तीक ने कहा- राजा जनमेजय ! यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो, तो सुनो, मैं मांगता हूं कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय अब इसमें सर्प न गिरने पावें। ब्रह्मन् ! आस्तीक के ऐसा कहने पर वे परीक्षित् -कुमार जनमेजय खिन्नचित्त होकर बोले-। ‘विप्रवर ! आप सोना, चांदी, गौ तथा अन्य अभीष्ट वस्तुओं को, जिन्हें आप ठीक समझते हों, मांग लें। प्रभो ! वह मुंह मांगा वर मैं आपको दे सकता हूं, किंतु मेरा यज्ञ बंद नही होना चाहिये’ । आस्तीक ने कहा- राजन् ! मै। तुमसे सोना, चांदी और गौएं नहीं मांगूंगा, मेरी यही इच्छा है कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय, जिससे मेरी माता के कुल का कल्याण हो ।। उग्रश्रवाजी कहते हैं- भृगुनन्दन शौनक ! आस्तीक के ऐसा कहने पर उस समय वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा जनमेजय ने उनसे बार- बार अनुरोध किया, ‘विप्रशिरोमणे। आपका कल्याण हो, कोइ दूसरा वर मांगिये।‘ किंतु आस्तीक ने दूसरा कोइ वर नहीं मांगा। तब सम्पूर्ण वेदवेत्ता सभासदों ने एक साथ संगठित होकर राजा से कहा-‘ब्राह्मण को (स्वीकार किया हुआ) वर मिलना ही चाहिये’ ।
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