महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 179 श्लोक 21-39
एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
राजन्! उन्होंने मेरे चारों घोड़ों तथा सारथि को भी अवरूद्ध कर दिया तो भी मैं पूर्ववत् कवच धारण किये उस समरभूमि में डटा रहा । तत्पश्चात् देवताओं और विशेषत: ब्राह्मणों को नमस्कार कर मैं मैं रणभूमि में खडे़ हुए परशुरामजी से मुसकराता हुआ-सा बोला- । ‘ब्रह्मन्! यद्यपि आप अपनी मर्यादा छोड़ बैठे हैं तो भी मैंने सदा आपके आचार्यत्व का सम्मान किया है। धर्मसंग्रह-के विषय में मेरा जो दृढ़ विचार हैं, उसे आप पुन: सुन लीजिये । ‘विप्रवर! आपके शरीर में जो वेद हैं, जो आपका महान् ब्राह्मणत्व है तथा आपने जो बड़ी भारी तपस्या की है, उन सबके ऊपर मैं बाणों का प्रहार नहीं करता हुं । ‘राम! आपने जिस क्षत्रियधर्म का आश्रय लिया है, मैं उसी पर प्रहार करूंगा; क्योंकि ब्राह्मण हथियार उठाते ही क्षत्रियभाव को प्राप्त कर लेता हैं । ‘अब आप मेरे धनुष की शक्ति और मेरी भुजाओं का बल देखिये। वीर! मैं अपने बाण से आपके धनुष को अभी काट देता हुं’ ।भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर मैंने उनके ऊपर तेज धारवाले एक भल्ल नामक बाण का प्रहार किया और उसके द्वारा उनके धनुष की कोटि (अग्रभाग) को काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया । इसी प्रकार परशुरामजी के रथ की ओर मैंने गीध की पांख और झुकी हुई गांठ वाले सौ बाण चलाये । वे बाण वायु द्वारा उड़ाये हुए सर्पों की भांति परशुरामजी के शरीर में धंसकर खून बहाते हुए चल दिये । राजन्! उस समय उनके सारे अङ्ग लहू-लूहान हो गये। जैसे मेरू पर्वत वर्षाकाल में गेरू आदि धातुओं से मिश्रित जल की धार बहाता है, उसी प्रकार उस रणभूमि में अपने अङ्गों से रक्त की धारा बहाते हुए परशुरामजी शोभा पाने लगे । राजन्! जैसे वसन्त ॠतु में लाल फूलों के गुच्छों से अलंकृत अशोक और खिला हुआ पलाश सुशोभित होता है, परशुरामजी की भी वैसी ही शोभा हुई ।तब क्रोध में भरे हुए परशुरामजी ने दूसरा धनुष लेकर सोने की पांखों से सुशोभित अत्यन्त तीखे बाणों की वर्षा आरम्भ की । वे नाना प्रकार के भयंकर बाण मुझ पर चोट करके मेरे मर्मस्थानों का भेदन करने लगे। उनका वेग महान् था। वे सर्प, अग्नि और विष के समान जान पड़ते थे। उन्होंने मुझे कम्पित कर दिया । तब मैंने पुन: अपने आप को स्थिर करके कुपित हो उस युद्ध में परशुरामजी पर सैकड़ों बाण बरसाये । वे बाण अग्नि, सूर्य तथा विषधर सर्पों के समान भयंकर एवं तीक्ष्ण थे। उनमें पीड़ित होकर परशुरामजी अचेत-से हो गये । भारत! तब मैं दया से द्रवित हो स्वयं ही अपने आप में धैर्य लाकर युद्ध और क्षत्रियधर्म को धिक्कार देने लगा । राजन्! उस समय शोक के वेग से व्याकुल हो मैं बार-बार इस प्रकार कहने लगा- ‘अहो! मुझ क्षत्रिय ने यह बड़ा भारी पाप कर डाला, जो कि धर्मात्मा एवं ब्राह्मण गुरू को इस प्रकार बाणों से पीड़ित किया’ । भारत! उसके बाद से मैंने परशुरामजी पर फिर प्रहार नहीं किया। इधर सहस्त्र किरणों वाले भगवान् सूर्य इस पृथ्वी को तपाकर दिन का अन्त होने पर अस्त हो गये; इसलिये वह युद्ध बंद हो गया ।
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