महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 185 श्लोक 1-21
पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
देवताओं के मना करने से भीष्म का प्रस्वापनास्त्र को प्रयोग में न लाना तथा पितर, देवता और गङ्गा के आग्रह से भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
भीष्मजी कहते हैं- राजन्! कौरवनन्दन! तदनन्तर ‘भीष्म! प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो’ इस प्रकार आकाश में महान् कोलाहल मच गया। तथापि मैंने भृगुनन्दन परशुरामजी को लक्ष्य करके उस अस्त्र को धनुष पर चढा़ ही लिया। मुझे प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग करते देख नारदजी ने इस प्रकार कहा- । ‘कुरूनन्दन! ये आकाश में स्वर्गलोक के देवता खडे़ हैं। ये सबके सब इस समय तुम्हें मना कर रहे हैं, तुम प्रस्वापनास्त्र का प्रयोग न करो । ‘परशुरामजी तपस्वी, ब्राह्मणभक्त, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण और तुम्हारे गुरू हैं। कुरूकुलरत्न! तुम किसी तरह भी उनका अपमान न करो’ । राजेन्द्र! तत्पश्चात् मैंने आकाश में खडे़ हुए उन आठों ब्रह्मवादी वसुओं को देखा। वे मुसकराते हुए मुझसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- । ‘भरतश्रेष्ठ! नारदजी जैसा कहते हैं, वैसा करो। भरतकुलतिलक! यहीं सम्पूर्ण जगत् के लिये परम कल्याणकारी होगा’ । तब मैंने उस महान् प्रस्वापनास्त्र को धनुष से उतार लिया और उस युद्ध में विधिपूर्वक ब्रह्मास्त्र को ही प्रकाशित किया । राजसिंह! मैंने प्रस्वापनास्त्र को उतार लिया है- यह देखकर परशुरामजी बडे़ प्रसन्न हुए। उनके मुख से सहसा यह वाक्य निकल पड़ा कि ‘मुझ मन्दबुद्धि को भीष्म ने जीत लिया’ । इसके बाद जमदग्निकुमार परशुरामने अपने पिता जमदग्नि को तथा उनके भी माननीय पिता ॠचीक मुनि को देखा। वे सब पितर उन्हें चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले । पितरों ने कहा- तात! फिर कभी किसी प्रकार भी ऐसा साहस न करना। भीष्म और विशेषत: क्षत्रिय के साथ युद्धभूमि में उतरना अब तुम्हारे लिये उचित नहीं हैं । भृगुनन्दन! क्षत्रिय का तो युद्ध करना धर्म ही है; किंतु ब्राह्मणों के लिये वेदों का स्वाध्याय तथा उतम व्रतों का पालन ही परम धर्म है । यह बात पहले भी किसी अवसर पर हमने तुमसे कही थी। शस्त्र उठाना अत्यन्त भयंकर कर्म है; अत: तुमने यह न करने योग्य कार्य ही किया है । महाबाहो! वत्स! भीष्म के साथ युद्ध में उतरकर जो तुमने इतना विध्वंसात्मक कार्य किया है, कल्याण हो। दुर्धर्ष वीर! तुमने जो धनुष उठा लिया, यही पर्याप्त है। अब इसे त्याग दो और तपस्या करो। देखो, इन सम्पूर्ण देवताओं ने शान्तनुनन्दन भीष्म को भी रोक दिया है। वे उन्हें प्रसन्न करके यह बात कह रहे हैं कि ‘तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ। परशुराम तुम्हारे गुरू हैं। तुम उनके साथ बार-बार युद्ध न करो। कुरूश्रेष्ठ! परशुराम को युद्ध में जीतना तुम्हारे लिये कदापि न्यायासंगत नहीं हैं। गङ्गानन्दन! तुम इस समराङ्गण में अपने ब्राह्मणगुरू का सम्मान करो’ । बेटा परशुराम! हम तो तुम्हारे गुरूजन- आदरणीय पितर हैं। इसलिये तुम्हें रोक रहे हैं। पुत्र! भीष्म वसुओं में से एक वसु हैं। तुम अपना सौभाग्य ही समझो कि उनके साथ युद्ध करके अब तक जीवित हो ।भृगुनन्दन! गङ्गा और शान्तनु के ये महायशस्वी पुत्र भीष्म साक्षात् वसु ही हैं। इन्हें तुम कैसे जीत सकते हो? अत: यहां युद्ध से निवृत्त हो जाओ । प्राचीन सनातन देवता और प्रजापालक वीरवर भगवान् नर इन्द्रपुत्र महाबली पाण्डवक्षेत्र अर्जुन के रूप में प्रकट होंगे तथा पराक्रमसम्पन्न होकर तोनों लोकों में सव्यसाची के नाम से विख्यात होंगे। स्वयम्भू ब्रह्माजी ने उन्हीं को यथासमय भीष्म की मृत्यु में कारण बनाया है । भीष्मजी कहते हैं- राजन्! पितरों के ऐसा कहने पर परशुरामजी ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘मैं युद्ध में पीठ नहीं दिखाऊंगा। यह मेरा चिरकाल से धारण किया हुआ व्रत है ।
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