महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 185 श्लोक 22-37
पञ्चाशीत्यधिकशततम (185) अध्याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्यान पर्व)
‘आज से पहले भी मैं कभी किसी युद्ध से पीछे नहीं हटा हुं। अत: पितामहो! आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार पहले गङ्गानन्दन भीष्म को ही युद्ध से ही निवृत्त कीजिये। मैं किसी प्रकार पहले स्वयं ही इस युद्ध से पीछे नहीं हटूंगा’ । राजन्! तब वे ॠचीक आदि मुनि नारदजी के साथ मेरे पास आये और इस प्रकार बोले- तात! तुम्हीं युद्ध से निवृत्त हो जाओ और द्विजश्रेष्ठ परशुरामजी का मान रक्खो’ । तब मैंने क्षत्रिय धर्म का लक्ष्य करके उनसे कहा- ‘महर्षि यो! संसार में मेरा यह व्रत प्रसिद्ध है कि मैं पीठ पर बाणों की चोट खाता हुआ कदापि युद्ध से निवृत्त नहीं हो सकता। मेरा यह निश्चित विचार है कि मैं लोभ से, कायरता या दीनता से, भय से अथवा किसी स्वार्थ के कारण भी क्षत्रियों के सनातन धर्म का त्याग नहीं कर सकता’ । इतना कहकर मैं पूर्ववत् धनुष-बाण लिये दृढ़ निश्चय के साथ समरभूमि में युद्ध करने के लिये डटा रहा। राजन्! तब वे नारद आदि सम्पूर्ण ॠषि और मेरी माता गङ्गा सब लोग उस रणक्षेत्र में एकत्र हुए और पुन: एक साथ मिलकर उस समराङ्गण में भृगुनन्दन परशुरामजी के पास जाकर इस प्रकार बोले-। ‘भृगुनन्दन! ब्राह्मणों का हृदय नवनीत के समान कोमल होता हैं; अत: शान्त हो जाओ। विप्रवर परशुराम! इस युद्ध में निवृत्त हो जाओ। भार्गव! तुम्हारे लिये भीष्म और भीष्म के लिये तुम अवश्य हो । इस प्रकार कहते हुए उन सब लोगों ने रणस्थली को घेर लिया और पितरों ने भृगुनन्दन परशुराम से अस्त्र-शस्त्र रखवा दिया । इसी समय मैंने पुन: उन आठों ब्रह्मवादी वसुओं को आकाश में उदित हुए आठ ग्रहों की भांति प्रकाशित होते देखा । उन्होंने समरभूमि में डटे हुए मुझसे प्रेमपूर्वक कहा- ‘महाबाहो! तुम अपने गुरू परशरामजी के पास जाओ और जगत् का कल्याण करो’ । अपने सुहृदों के कहने से परशुरामजी को युद्ध से निवृत्त हुआ देख मैंने भी लोक की भलाई करने के लिये उन महर्षियों की बात मान ली । तदनन्तर मैंने परशुरामजी के पास जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। उस समय मेरा शरीर बहुत घायल हो गया था। महातेजस्वी परशुराम मुझे देखकर मुसकराये और प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोल ‘भीष्म! इस जगत् में भूतल पर विचरने वाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं हैं। जाओ, इस युद्ध में तुमने मुझे बहुत संतुष्ट किया है’ ।फिर मैंने सामने ही उन्होंने उस कन्या को बुलाकर उन सब महात्माओं के बीच दीनतापूर्ण वाणी में उससे कहा-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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