महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 89 श्लोक 13-27

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एकोननवतितम (89) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद

सूतपुत्र कर्ण और अर्जुन दोनों उस युद्ध में अत्यन्त हर्ष में भरकर सुन्दर पंखवाले बाणों द्वारा एक दूसरे को क्षत-विक्षत करने लगे। वे परस्पर क्षति पहुंचाते और भयानक आक्रमण करते थे। तत्पश्चात् भयंकर धनुषवाले अर्जुन ने अपनी दोनों भुजाओं तथा गाण्डीव धनुष को पोंछकर नाराच, नालीक, वराह कर्ण, क्षुर, अंजलिक तथा धर्मचन्द्र आदि बाणों का प्रहार आरम्भ किया। राजन् ! वे अर्जुन के बाण कर्ण के रथ में घूसकर सब ओर बिखर जाते थे। ठीक उसी तरह, जैसे संध्या के समय पक्षियों के झुंड बसेरा लेने के लिये नीचे मुख किये शीघ्र ही किसी वृक्ष पर जा बैठते हैं। नरेश्वर ! शत्रुविजयी अर्जुन भौंहें टेढ़ी करके कटाक्ष-पूर्वक देखते हुए कर्ण पर जिन-जिन बाणों का प्रहार करते थे, पाण्डुपुत्र अर्जुन के चलाये हुए उन सभी बाण समूहों को सूतपुत्र कर्ण शीघ्र ही नष्ट कर देता था। तब इन्द्रकुमार अर्जुन ने कर्णपर शत्रुनाशक आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया। उस आग्नेयास्त्र का स्वरूप पृथ्वी, आकाश, दिशा तथा सूर्य के मार्ग को व्याप्त करके वहाँ प्रज्वलित हो उठा। इससे वहाँ समस्त योद्धाओं के वस्त्र जलने लगे। कपडे़ जल जाने से वे सब-के-सब वहां से भाग चले। जैसे जंगल के बीच बाँस के वन में आग लगने पर जोर-जोर से चटकने की आवाज होती है, उसी प्रकार आग की लपट में झुलसते हुए सैनिकों का अत्यन्त भयंकर आर्तनाद होने लगा।
प्रतापी सूतपुत्र कर्ण ने उस आग्नेययास्त्र को उद्दीप्त हुआ देखकर रणक्षेत्र में उसकी शांति के लिये वारूणास्त्र प्रयोग किया और उसके द्वारा उस आग को बुझा दिया। फिर तो बडे़ वेग से मेंघों की घटा घिर आयी और उसने सम्पूर्ण दिशाओं को अन्धकार से आच्छादित कर दिया। दिशाओं का अंतिम भाग काले पर्वत के समान दिखायी देने लगा। मेंघों की घटाओं ने वहाँ का सारा प्रदेश जल से आप्लावित कर दिया था। उन मेंघों ने वहाँ पूवोक्त रूप से बढ़ी हुई अति प्रचण्ड आग को बडे़ वेग से बुझा दिया। फिर समस्त दिशाओं और आकाश में वे ही छा गये । मेंघों घिरकर सारी दिशाएँ अन्धकाराच्छन्न हो गयीं; अतः कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती थी। तदनन्तर कर्ण की ओर से आये हुए सम्पूर्ण मेंघसमूहों को वायव्यास्त्र से छिन्न-भिन्न करके शत्रुओं के लिये अजेय अर्जुन ने गाण्डीव धनुष, उसकी प्रत्यंचा तथा बाणों को अभिमंत्रित करके अत्यन्त प्रभावशाली वज्रास्त्र को प्रकट किया, जो देवराज इन्द्र का प्रिय अस्त्र है। उस गाण्डीव धनुष से क्षुरप्र, अंजलिक, अर्धचन्द्र, नालीक, नाराच और वराहकर्ण आदि तीखे अस्त्र हजारों की संख्या में छूटने लगे। वे सभी अस्त्र वज्र के समान वेगशाली थे।
वे महाप्रभावशाली, गीध के पंखों से युक्त, तेज धारवाले और अतिशय वेगवान् अस्त्र कर्ण के पास पहुँचकर उसके समस्त अंगों में, घोड़ों पर , धनुष में तथा रथ के जुओं, पहियों और ध्वजों में जा लगे। जैसे गरूढ़ से डरे हुए सर्प धरती छेदकर उसके भीतर घूस जाते हैं, उसी प्रकार वे तीखें अस्त्र अपयुक्त वस्तुओं को विदीर्ण कर शीध्र ही उनके भीतर घँस गये। कर्ण के सारे अंग बाणों से भर गये। सम्पूर्ण शरीर रक्त से नहीं उठा। इससे उसके नेत्र उस समय क्रोध से घूमने लगे। उस महामनस्वी वीर ने अपने धनुष को जिसकी प्रत्यंचा सुदृढ़ थी, झुकाकर समुद्र के समान गम्भीर गर्जना करनेवाले भार्गवास्त्र को प्रकट किया और अर्जुन के महेन्द्रास्त्र से प्रकट हुए बाण-समुहों के टुकडे़-टुकडे़ करके अपने अस्त्र से उनके अस्त्र को दबाकर युद्धस्थल में रथों, हाथियों और पैदल-सैनिकों का संहार कर डाला।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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