महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 71 श्लोक 14-26
एकसप्ततितम (71) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्युपर्व )
विद्वान् पुरुष पुण्य कर्मों द्वारा सदा स्वर्गलोक में जाने की इच्छा करते हैं, परंतु स्वर्गवासी पुरुष स्वर्ग से इस लोक में आने की कामना नहीं करते हैं । अर्जुन का पुत्र युद्ध में मारे जाने के कारण स्वर्ग लोक में गया हुआ है । अत: उसे यहां नहीं लाया जा सकता। कोई अप्राप्य वस्तु केवल इच्छा करने मात्र से नहीं सुलभ हो सकती । जिन्होंने ध्यान के द्वारा पवित्र ज्ञानमयी दृष्टि प्राप्त कर ली है, वे योगी निष्काम भाव से उत्तम यज्ञ करने वाले पुरुष तथा अपनी उज्ज्वल तपस्याओं द्वारा तपस्वी मुनि जिस अक्षय गति को पाते हैं, तुम्हारे पुत्र ने भी वही गति प्राप्त की है । वीर अभिमन्यु मृत्यु के पश्चात पुन: पूर्वभाव को प्राप्त होकर चन्द्रमा से उत्पन्न अपने द्विजोचित शरीर में प्रतिष्ठित हो अपनी अमृतमयी किरणों से राजा सोम के समान प्रकाशित हो रहा है । अत: उसके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये ।राजन! ऐसा जानकर सुस्थिर हो धैर्य का आश्रय लो और उत्साहपूर्वक शत्रुओं का वध करो । हमें इस संसार में जीवित पुरुषों के लिये ही शोक करना चाहिये । जो स्वर्ग में चला गया है, उसके लिये शोक करना उचित नहीं है । महाराज ! शोक करने से केवल दु:ख ही बढता है ।अत: विद्वान् पुरुष उत्कृष्ट हर्ष, अतिशय सम्मान और सुख प्राप्ति का चिन्तन करते हुए शोक का परित्याग करके अपने कल्याण के लिये ही प्रयत्न करे ।यही सब सोचसमझकर ज्ञानवान् पुरुष शोक नहीं करते हैं । शोक को शोक नहीं कहते हैं (उसका अनुभव करने वाला मन ही शोकरूप होता है) । राजन् ! ऐसा जानकर तुम युद्ध के लिये उठो । मन और इन्द्रियों को संयम में रक्खो तथा शोक न करो । तुमने मृत्यु की उत्पत्ति और उसकी अनुपम तपस्या का वृत्तान्त सुन लिया है । मृत्यु सम्पूर्ण प्राणियों को समभाव से प्राप्त होती है और धन-ऐश्वर्य चंचल है – यह बात भी जान ली है । सृंजय का पुत्र मरा और पुन: जीवित हुआ, यह कथा भी तुमने सुन ही ली है । महाराज ! यह सब तुम जानते हो । अत: शोक न करो । अब मैं अपनी साधना में लग रहा हूँ । ऐसा कहकर भगवान् व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये । बिना बादल के आकाश की सी कान्ति वाले, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ वागीश्वर भगवान व्यास जब युधिष्ठिर को आश्वासन देकर चले गये, तब देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी और न्याय से धन प्राप्त करने वाले प्राचीन राजाओं के उस यज्ञ-वैभव की कथा सुनकर विद्वान् युधिष्ठिकर मन ही मन उनके प्रति आदर की भावना करते हुए शोक से रहित हो गये । तदनन्तर फिर दीन भावना से यह सोचने लगे कि अर्जुन से मैं क्या कहूँगा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व में षोडश राजकीयोपाख्यान विषयक इकहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ।
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