महाभारत वन पर्व अध्याय 127 श्लोक 1-18

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सप्‍तविंश‍त्‍यधि‍कशततम (127) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: सप्‍तविंश‍त्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

सोमक और जन्तु का उपाख्यान

युधिष्‍ठि‍र ने पूछा- वक्ताओं मे श्रेष्‍ट महर्षे राजा सोमक बल पराक्रम कैसा था मैं उनके कर्म ओर प्रभाव का यथार्थ का वर्णन चाहता हूं । लोमशजी ने कहा- युधिष्‍ठि‍र सोमक नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । उनकी सौं रानियां थी । वे सभी रूप अवस्था आदि में प्राय: एक समान थीं । परंतु दीर्धकाल तक महान प्रयन्त करते रहने पर भी वे अपनी उन रानियों के गर्भ से काई पुत्र न प्राप्त कर सके । राजा सोमक वृद्धावस्था में भी इसके लिये तदनन्तर यत्नशाली थे; अत: किसी समय उनकी सौ स्त्रियों में से किसी एक के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था जन्तु । राजन उसके जन्म लेने के पश्चात सभी माताएं काम भोग की आर से मूंह मोड़कर सदा उसी बच्चे के पास उसे सब ओर से घेरकर बैठी रहती थीं । एक दिन एक चींटी ने जन्तु के कटिभग में डंस लिया । चींटी के काटने पर उसकी पीड़ा से विफल हो जन्तु सहसा रोने लगा । इससे उसकी सब माताएं भी सहसा जन्तु के शरीर से चीटीं को हटाकर अत्यन्त दु:खी हो जोर जोर से रोने लगी । उनके रोदन की वह सम्मिलित ध्वनि‍ बडी भयंकर प्रतीत हुई ।।उस समय राजा सोमक पुराहि‍त के साथ मन्‍त्रि‍यों की सभा में बैठे थे । उनहोंने अक्‍समात वह‍ आर्तनाद सुना । सुनकर राजाने ‘यह सोचा क्‍या हो गया’ इस बात का पता लगाने के लि‍ये द्वारपाल को भेजा । द्वारपाल ने लौटकर राजकुमार से सम्‍बंध रखने वाली पूर्वोक्‍त घटना का यथावत वृत्‍तान्‍त सुनाया । तब शत्रुदमन राजा सोमक ने मन्‍त्रि‍यों सहि‍त उठकर बड़ी उतावली के साथ अन्‍त: पुर में प्रवेश कि‍या और पुत्र को आश्‍वासन दि‍या । बेटे को सान्‍त्‍वना देकर राजा अन्‍त:पुर से बाहर नि‍कले और पुराहि‍त तथा मन्‍त्रि‍यों के साथ पुन: मन्‍त्रणा गृह में जा बैठे । उस समय सोमक ने कहा- इस संसार में कि‍सी पुरूष के एक ही पुत्र होना धि‍क्‍कार का वि‍षय है। एक पुत्र होने की अपेक्षा तो पुत्रहीन रह जाना ही अच्‍छा है । एक ही संतान हो तो सब प्राणी उसके लि‍ये सदा आकुल व्‍याकुल रहते है, अत: एक पुत्र का होना शोक ही हैं । ब्रह्मन ! मैने अच्‍छी तरह जांच बूझकर पुत्र की इच्‍दा से अपने योग्‍य सौ स्‍त्रि‍यों के साथ वि‍वाह कि‍या, कि‍तु उनके काई संतान नहीं हुई । यद्यपि‍ मेरी सभी रानि‍यों के लि‍ये यत्‍नशील थी, तथापि‍ कि‍सी तरह मेरे यही एक पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ, जि‍सका नाम जन्‍तु है । इससे बढ़कर दु:ख और क्‍या हो सकता हैं । द्वि‍जश्रेष्‍ट ! मेरी तथा इन रानि‍यों की अधि‍क अवस्‍था बीत गयी, कि‍तु अभीतक मेरे और उन पत्‍नि‍यों के प्राण केवल इस एक पुत्र में ही बसते हैं । क्‍या कोई ऐसा उपयोगी कर्म हो सकता है, जि‍ससे मेरे सौ पुत्र हो जायं । भले ही वह कर्म्‍ महान हो, लघु हो अथवा अत्‍यनत दुष्‍कर हो । पुरोहि‍त ने कहा- सोमक ! ऐसा कर्म है, जि‍ससे तुम्‍हें सौ पुत्र हो सकते है। यदि‍ तुम उसे कर सको तो बताउंगा । सोमक ने कहा- भगवन ! आप वह कर्म मुझे बताइये, जि‍ससे सौ पुत्र हो सकते हैं । वह करने योग्‍य हो या न हो, मेरे द्वारा उसे कि‍या हुआ ही जानि‍ये ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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