महाभारत वन पर्व अध्याय 158 श्लोक 1-25

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अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्‍टपञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद

नर-नारायण-आश्रमसे वृशपर्वाके यहां होते हुए राजर्षि आर्ष्टिषेणके आश्रमपर जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं-उस राक्षसके मारे जानेपर कुन्तीकुमारशक्तिशाली राजा युधिष्ठिर पुनः नर-नारायण-आश्रममें आकर रहने लगे। एक दिन उन्होंने द्रौपदीसहित सब भाइयोंको एकत्र करके अपने प्रियबन्धु अर्जुनका स्मरण करते हुए कहा-'हमलोगोंको कुशलपूर्वक बनमें विचरते हुए चार वर्श हो गये। अर्जुनने यह संकेत किया था कि मैं पांचवें वर्शमें लौट आउंगा। पर्वतोंमें श्रेष्ठ गिरिराज कैलासपर आकर अर्जुनसे मिलनेकेशुभ अवसरकी प्रतीक्षामें हमने यहां डेरा डाला है। (क्योंकि वहीं मिलनेका उनकी ओरसे संकेत प्राप्त हुआ था) वहश्वेत कैलासशिखर पुष्पित वृक्षावलियोंसे सुशोभित है। वहां मतवाले कोकिलोंकी काकली, भ्रमरोंके गुंजारव तथा मोर और पपीहोंकी मीठी वाणीसे नित्य उत्सवसा होता रहता हैं, जो उस पर्वतकीशोभाको बढ़ा देता है। वहां व्याघ्र,वराह,महिश,गवय,हरिण,हिंसक,हिंसक जन्तु,सर्प तथा रूमृग, निवास करते है। खिले हुए सहस्त्रदल,शतदल,उत्पल,प्रफुल्ल कमल तथा नीलोत्पल आदिसे उस पर्वतकी रमणीयता और भी बढ़ गयी है। वह परम पुण्यमय और पवित्र है। देवता और असुर दोनों ही उसका सेवन करते हैं। अमिततेजस्वी अर्जुनने वहां भी अपना आगमन देखनेके लिये उत्सुक हुए हमलोगोंके साथ संकेतपूर्वक यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अस्त्रविद्याका अध्ययन करनेके लिये पांच वर्षोंतक देवलोकमें निवास करूंगा। शुत्रुओंका दमन करनेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन अस्त्रविद्या प्राप्त करके पुनः देवलोकसे इस मनुष्योंलोकमें आनेवाले हैं। हमलोगशीघ्र ही उनसे मिलेंगे' ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सब ब्राह्मणोंको आमंत्रित किया।और उन तपस्विीयों सामने उन्हें बुला भेजनेका कारण बताया। उन कठोर तपस्वियोंको प्रसन्न करके कुन्तीकुमारोंने उनकी परिक्रमा की। तब उन ब्राह्मणोंने कुशल-मंगलके साथ उन सबके अभीष्ट मनोरथकी पूर्तिका अनुमोदन किया और कहा- 'भरतश्रेष्ठ! आजका यह क्लेशशीघ्र ही सुखद भविष्‍यके रूपमें परिणत हो जायगा। धर्मज्ञ! तुम क्षत्रियधर्मके अनुसार इस संकटके पार होकर सारी पृथ्वीका पालन करोगे।' राजा युधिष्ठिरने उन तपस्वी ब्राह्मणोंका यह आशीर्वाद शिरोधार्य किया और वे परंतप नरेश उन ब्राह्मणों तथा भाइयोंके साथ वहांसे प्रस्थित हुए। घटोत्कच आदि राक्षस भी उनकी सेवाके लिये पीछे-पीछे चले। राजा युधिष्ठिर महर्षि लोमशके द्वारा सर्वथा सुरक्षित थे। उत्‍तम व्रतका पालन करनेवाले वे महातेजस्वी भूपाल कहीं तो भाइयोंसहित पैदल चलते और कहीं राक्षसलोग उन्हें पीठपर बैठाकर ले जाते थे। इस प्रकार वे अनेक स्थानोंमें गये।। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर अनेक क्लेशोका चिन्तन करते हुए सिंह,व्याघ्र और हाथियोंसे भरी हुई उत्‍तर दिशा की ओर चल दिये। कैलास, मैनाकपर्वत, गन्धमादनकी घाटियों और श्वेत (हिमालय) पर्वत का दर्शन करते हुए उन्होंने पर्वतमालाओं के ऊपर-ऊपर बहुत-सी कल्याणमयी सरिताएं देखीं तथा सहत्रवें दिन वे हिमालय के एक पावन पृष्ठभाग पर जा पहुंचे। राजन्! यहां पाण्डवों ने गन्धमादन पर्वत का निकट से दर्शन किया। हिमालयका वह पावन पृष्ठभाग नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे आवृत था। वहां जलके आवर्तों से सींचकर उत्पन्न हुए फूल वाले वृक्षों से घिरा हुआ वृशपर्वा का परम पवित्र आश्रम था। शत्रुदमन पाण्डवों ने उन धर्मात्मा राजर्षि वृशपर्वा के पास जाकर क्लेश रहित हो उन्हें प्रणाम किया। उन राजर्षि ने भरतकुलभूशण पाण्डवोंका पुत्र के समान अभिनन्दन किया और उनसे सम्मानित होकर वेशत्रुदमन पाण्डव वहां सात रात ठहरे रहे। आठवें दिन उन विश्वविख्यात राजर्षि वृशपर्वाकी आज्ञा ले उन्होंने वहां से प्रस्थान करने का विचार किया। अपने साथ आये हुए ब्राह्मणों को उन्होंने एक-एक करके वृशपर्वा के यहां धरोहर की भांति सौंपा। उन सबका पाण्डवों ने समय-समय पर सगे बन्धु की भांति सत्कार किया था। ब्राह्मणोंको सौंपने पश्चात् पाण्डवों ने अपनीशेष सामग्री भी उन्हीं महामना को दे दी। तदनन्तर पाण्डुवोंने वृशपर्वाके ही आश्रममें अपने यज्ञपात्र तथा रत्नमय आभूषण भी रख दिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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