महाभारत वन पर्व अध्याय 84 श्लोक 97-119

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चतुरशीतितम (84) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 97-119 का हिन्दी अनुवाद

बहुत-से पुत्रों की इच्छा करे। सम्भव है, उनमें से एक भी गया में जाय या अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नील वृष का उत्सर्ग ही करे। राजन् ! नरेश्वर ! तदनन्तर तीर्थसेवी मानव फल्गुतीर्थ में जाय। वहां जाने से उसे अश्वमेध का फल मिलता है और बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त होती है। महाराज ! तदनन्तर एकाग्रचित्त हो मनुष्य धर्मप्रस्थ की यात्रा करे। युधिष्ठिर ! वहां धर्मराज का नित्य निवास है। वहां कुएं का जल लेकर उससे स्नान करके पवित्र देवताओं और पितरों का तर्पण करने से मनुष्य के सारे पाप छूट जाते हैं और वह स्वर्गलोक में जाता है। वहीं भावितात्मा महर्षि मतंग का आश्रय है। श्रम और शोक का विनाश करनेवाले उस सुन्दर आश्रय में प्रवेश करने से मनुष्य गवायनयज्ञ का फल पाता है। वहां धर्म के निकट जा उनके श्रीविग्रह का दर्शन और स्पर्श करने से अध्वमेध का फल प्राप्त होता है। राजेन्द्र ! तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मस्थान को जाय। महाराज! पुरूषोत्तम ! वहां ब्रह्माजी के समीप जाकर मनुष्य राजसूय और अश्वमेधयज्ञों का फल पाता है। नरेश्वर ! तदनन्तर तीर्थसेवी मनुष्य राजगृह को जाय। वहां स्नान करके वह कक्षीवान् के समान प्रसन्न होता है। उस तीर्थ में पवित्र होकर पुरूष यक्षिणीदेवी का नैवेद्य भक्षण करे। यक्षिणी के प्रसाद से वह ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है। तदनन्तर मणिनागतीर्थ में जाकर तीर्थयात्री सहस्त्र गोदान का फल प्राप्त करे। भरतनन्दन ! जो मणिनाग का तीर्थप्रसाद (नैवेद्य चरणामृत आदि) का भक्षण करता है, उसे सांप काट ले तो भी उसपर विष का असर नहीं होता। वहां एक रात रहने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। तत्पश्चात् ब्रह्मार्षि गौतम के प्रिय वन की यात्रा करे। वहां अहल्याकुण्ड में स्नान करने से मनुष्य परमगति को प्राप्त होता है। राजन् ! गौतम के आश्रय में जाकर मनुष्य अपने लिये लक्ष्मी प्राप्त कर लेता है। धर्मज्ञ ! वहां एक त्रिभुवनविख्यात कूप है, जिसमें स्नान करने से अध्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। राजर्षि जन का एक कूप है, जिसका देवता भी सम्मान करते हैं। वहां स्नान करने से मनुष्य विष्णुलोक मंे जाता है। तत्पश्चात् सब पापों से छुड़ानेवाले विनशन तीर्थ को जाय, जिससे मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता और सोमलोक को जाता है। गण्डकी नदी सब तीर्थों के जल से उत्पन्न हुई है। वहां जाकर तीर्थ यात्री अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और सूर्यलोक में जाता है। तत्पश्चात् त्रिलोकी में विख्यात विशल्या नदी के तटपर जाकर स्नान करे। इससे वह अग्निष्टोमयज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है। धर्मज्ञ महाराज ! तदनन्तर वंगदेशीय तपोवन में प्रवेश करके तीर्थयात्री इस शरीर के अन्त में गुह्यकलोक में जाकर निःसन्देह आनंद का भागी होता है। तत्पश्चात् सिद्धसेवित कम्पना नदी में पहुंचकर मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है। राजन् ! तत्पश्चात् माहेश्वरी धारा की यात्रा करने से तीर्थयात्राी को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है और वह कुल का उद्धार कर देता है। नरेश्वर ! फिर देवपुष्करिणी में जाकर मानव कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। तदनन्तर ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो सेामपद तीर्थ में जाय। वहां माहेश्वर पद में स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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