महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 15-28
अष्टाधिकत्रिशततम (308) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
तात ! यह जीवात्मा वास्तव में तत्वों से अतीत है, अत: पद्रूप नहीं होता है; अपितु ज्ञानवान् होने के कारण ब्रह्माज्ञान का उदय होने पर शीघ्र ही प्राकृत तत्वों का त्याग कर देता है और उसमें नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्मा के लक्ष्ण प्रकट हो जाते हैं। ‘मैं पचीस तत्वों से भिन्न छब्बीसवाँ परमात्मा हूँ। नित्य ज्ञानसम्पन्न और जानने के योग्य अजर-अमरस्वरूप हूँ,’ इस प्रकार विचार करते-करते जीवात्मा केवल विवेक-बल से ही ब्रह्मा भाव को प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। जीव छब्बीसवें तत्व ज्ञानस्वरूप परमात्मा के प्रकाश से ही जडवर्ग को जानता है; परंतु उसे जानकर भी परमात्मा को न जानने कारण वह अज्ञानी ही रह जाता है। यह अज्ञान ही जीव के नानात्वरूप बन्धन का कारण बताया जाता है। जैसा कि सांख्यशास्त्र और श्रुतियों द्वारा दिग्दर्शन कराया गया है। जब जीवात्मा बुद्धि के द्वारा जडवर्ग को अपना नहीं समझता अर्थात् उससे सम्बन्ध नहीं जोड़ता तब नित्य चेतन परमात्मा से संयुक्त हुए उस जीवात्मा की परमात्मा के साथ एकता हो जाती है। मिथिलानरेश ! जब तक जीवात्मा जडवर्ग को अपना समझता है, तब तक जडवर्ग की ही समता को वह प्राप्त होता है । यद्यपि वह स्वरूप से असंग है तो भी प्रकृति के सम्पर्क से आसक्ति रूप धर्मवाला हो जाता है। छब्बीसवाँ तत्व परमात्मा अजन्मा, सर्वव्यापी और संगदोष से रहित है। उसकी शरण लेकर जब जीवात्मा उसके स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है, तब परमात्म– ज्ञान के प्रभाव से स्वयं भी सर्वव्यापी हो जाता है तथा चौबीस तत्वों से युक्त प्रकृति को असार समझकर त्याग देता है। निष्पाप नरेश ! इस प्रकार मैंने तुम से अप्रतिबुद्ध (क्षर), बुध्यमान (अक्षर जीवात्मा) और बुद्ध (ज्ञानस्वरूप परमात्मा)- इन तीनों का श्रुति के निर्देश के अनुसार यथार्थरूप से प्रतिपादन किया है । शास्त्रीय दृष्टि के अनुसार जीवात्मा के नानात्व और एकत्व को इसी तरह समझना चाहिये। जैसे गूलर और उसके कीड़े एक साथ रहते हुए भी परस्पर भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरूष में भी भिन्नता है। जैसे मछली और जल एक-दूसरे से भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरूष में भी भेद उपलब्ध होता है। इसी प्रकार प्रकृति और पुरूष की एकता और अनेकता को समझना चाहिये। अव्यक्त प्रकृति का पुरूष से जो नित्य भेद है, उसके यथार्थज्ञान से पुरूष उसके बन्धन से मुक्त हो जाता है । इसी को मोक्ष कहा गया है। इस शरीर में जो पचीसवाँ तत्व अन्तर्यामी पुरूष विद्यमान है, उसे अव्यक्त के कार्यभूत महतत्वादि के बन्धन से मुक्त करना आवश्यक है, ऐसा विद्वान् पुरूष कहते हैं। वह यह जीवात्मा पूर्वोक्त प्रकार से ही मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं । यही विद्वानों का निश्चय है । यह दूसरे से मिलकर उसी का समानधर्मी हो जाता है। पुरूषप्रवर ! जीवात्मा शुद्ध पुरूष का संग करके विशुद्ध धर्मवाला होता है । किसी ज्ञानी या बुद्धिमान् का संग करने से बुद्धिमान् होता है । किसी मुक्त से मिलने पर उसमें मुक्त के- से ही धर्म या लक्ष्ण प्रकट होते हैं। जिसका प्रकृति से सम्बन्ध हट गया है, ऐसे पुरूष से मिलने पर वह विमुक्तात्मा होता है । जो मोक्षधर्म से युक्त है, उसका साथ करने से जीव को मोक्ष प्राप्त होता है।
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