महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 29-42
अष्टाधिकत्रिशततम (308) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जिसके आचार-विचार शुद्ध हैं, उससे मिलने पर वह पवित्रकर्मा एवं पवित्र होता है । जिसका अन्त: कारण निर्मल है, उसके सम्पर्क में जाने पर भी निर्मलात्मा और अमिततेजस्वी होता है। अद्वितीय परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करके वह तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है अर्थात् अद्वितीय परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । स्वतन्त्र परमेश्वर से सम्बन्ध रखने के कारण वह वास्तव में स्वतन्त्र होकर वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है। महाराज ! मैंने ईर्ष्या- द्वेष से रहित भाव को स्वीकार करके और तुम्हारे प्रयोजन को समझकर तुम से प्रेमपूर्वक इस शुद्ध सनातन एवं सबके आदिभूत सत्यस्वरूप ब्रह्मा के यथार्थ तत्व का इस रूप में वर्णन किया है। राजन् ! जो मनुष्य वेद में श्रद्धा रखने वाला न हो, उसे इस उत्तम ज्ञान का उपदेश तुम्हें नहीं करना चाहिये। जिसे बोध के लिये अधिक प्यास हो तथा जो जिज्ञासु भाव से शरण में आया हो, वही इस उपदेश को सुनने का अधिकारी है। असत्यवादी, शठ, नीच, कपटी, अपने को पण्डित मानने वाले और दूसरे को कष्ट पहुँचाने वाले मनुष्य को भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये । कैसे पुरूष को इस ज्ञान का उपदेश देना और अवश्य देना चाहिये- यह भी सुन लो। श्रद्धालु, गुणवान्, परनिन्दा से सदा दूर रहनेवाले, विशुद्ध योगी, विद्वान् सदा शास्त्रोक्त कर्म करने वाले, क्षमाशील, सबके हितैषी, एकान्तवासी, शास्त्रविधिका आदर करने वाले, विवादहीन, बहुज्ञ, विज्ञ, किसी का अहित न करनेवाले तथा इन्द्रियसंयम एवं मनोनिग्रह में समर्थ पुरूष को ही इस ज्ञान का उपदेश देना चाहिये। जो इन सद्गुणों से अत्यन्त हीन हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। यह ज्ञान विशुद्ध पर ब्रह्मास्वरूप बताया गया है । वैसे गुणहीन पुरूष को दिया हुआ यह ज्ञान उसके लिये कल्याणकारी नहीं होगा तथा कुपात्र को उपदेश देने से वह वक्ता का भी कल्याण नहीं करेगा। नरेन्द्र ! जिसने व्रत और नियमों का पालन न किया हो, वह यदि रत्नों से भरी हुई इस सारी पृथ्वी का राज्य दे तो भी उसे इस ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिये। परंतु जितेन्द्रिय पुरूष को निस्संदेह इस परम उत्तम ज्ञान का उपदेश देना तुझे उचित है। कराल ! तुमने मुझे से आज पर ब्रह्मा का ज्ञान सुना है; अत: तुम्हारे मन में तनिक भी भय नहीं होना चाहिये । वह पर ब्रह्मा परम पवित्र, शोकरहित, आदि, मध्य और अन्त से शून्य, जन्म-मृत्यु से बचाने वाला, निरामय, निर्भय तथा कल्याणमय है । राजन् ! उसका मैंने यथावत् रूप से प्रतिपादन किया है । वही सम्पूर्ण ज्ञानों का तात्विक अर्थ है। ऐसा जानकर उसका ज्ञान प्राप्त करके आज मोह का परित्याग कर दो। नरेश्वर ! जिस प्रकार आज तुमने मुझसे सनातन ब्रह्मा का ज्ञान प्राप्त किया है; इसी प्रकार मैंने भी हिरण्यगर्भ नाम से प्रसिद्ध सनातन उग्रचेता ब्रह्माजी के मुख से, उन्हें बडे़ रत्न से प्रसन्न करके इसे प्राप्त किया था। नरेन्द्र ! जैसे तुमने मुझसे पूछा है और जैसे मैंने तुम्हारे प्रति आज इस ज्ञान का उपदेश किया है, उसी प्रकार मैंने भी ब्रह्माजी से प्रश्न करके उनके मुख से इस महान् ज्ञान को प्राप्त किया है । यह मोक्ष ज्ञानियों का परम आश्रय है। भीष्मजी कहते हैं— महाराज ! महर्षि वसिष्ठ के बताये अनुसार यह पर ब्रह्मा का स्वरूप मैंने तुम्हें बताया हे, जिसे पाकर जीवात्मा फिर इस संसार में नहीं लौटता।
« पीछे | आगे » |