महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 316 श्लोक 1-12
षोडशाधिकत्रिशततम (316) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
योग का वर्णन और उसके साधन से पर ब्रह्मा परमात्मा की प्राप्ति
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं — नृपश्रेष्ठ ! मैं सांख्य सम्बन्धी ज्ञान तो तुम्हें बतला चुका। अब जैसा मैंने देखा, सुना या समझा है, उसके अनुसार योगशास्त्र का तात्विक ज्ञान मुझसे सुना। सांख्य के समान कोई ज्ञान नहीं है। योग के समान कोई बल नहीं है। दोनों का लक्ष्य एक है और वे दोनों ही मृत्यु का निवारण करने वो माने गये हैं । राजन् ! जो मनुष्य अज्ञानपरायण हैं, वे ही इन दोनों शास्त्रों को सर्वथा भिन्न मानते हैं। हम तो विचार के द्वारा पूर्ण निश्चय करके दोनों को एक ही समझते हैं। योगी जिस तत्व का साक्षात्कार करते हैं, वही सांख्यों द्वारा भी देखा जाता है; अत: जो सांख्य और योग को एक देखता है, वही तत्वज्ञानी है। शत्रुदमन नरेश ! योग-साधनों में रूद्र अर्थात् प्राण प्रधान है। इन सबको तुम सर्वश्रेष्ठ समझो। प्राण को अपने वश में कर लेने पर योगी इसी शरीर से दसों दिशाओं में स्वच्छन्द विचरण कर सकते हैं । प्रिय निष्पाप भूपाल! जब तक मृत्यु न हो जाय, तब तक ही योगी योगबल से स्थूल शरीर को यहीं छोड़कर अष्टविध ऐश्वर्य से युक्त सूक्ष्म शरीर के द्वारा लोक-लोकान्तरों में सुखपूर्वक विचरण करता है । नृपश्रेष्ठ ! मनीषी पुरूषों का कहना है कि वेद में स्थूल सूक्ष्म दो प्रकार के योगों का वर्णन है। उनमें स्थूल योग अणिमा आदि आठ प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाला है और सूक्ष्म योग ही (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-इन) आठ गुणों (अंगों) से युक्त है; दूसरा नहीं। योग का मुख्य साधन दो प्रकार का बताया गया है— सगुण और निर्गुण (सबीज और निर्बीज) । ऐसा ही शास्त्रों का निर्णय है। पृथ्वीनाथ ! किसी विशेष देश में चित्त को स्थापित करने का नाम ‘धारण’ है। मन की धारणा के साथ किया जाने वाला प्राणायाम सगुण है और देश-विशेष का आश्रय न लेकर मन को निर्बीज समाधि में एकाग्र करना निर्गुण प्राणायाम कहलाता है। सगुण प्राणायाम मन को निर्गुण अर्थात् वृत्तिशून्य करके स्थिर करने में सहायक होता है। मैथिलशिरोमणे ! यदि पूरक आदि के समय नियत देवता आदि का ध्यान द्वारा साक्षात्कार किये बिना ही कोई प्राणवायु का रेचन करता है तो उसके शरीर में वायु का प्रकोप बढ़ जाता है; अत: धयान-रहित प्राणायाम को नहीं करना चाहिये। रात के पहले पहर में वायु को धारण करने की बारह प्रेरणाएँ बतायी गयी हैं। मध्य रात्रि में रात्रि के बिचले दो पहरों में सोना चाहिये तथा पुन: अन्तिम प्रहर में बारह प्रेरणाओं का ही अभ्यास करना चाहिये[१]। इस प्रकार प्राणायाम के द्वारा मन को वश में करके शान्त और जितेन्द्रिय हो एकान्तवास करने वाले आत्माराम ज्ञानी को चाहिये कि मन को परमात्मा में लगावे। इसमें संशय नहीं है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक प्राणायाम में पूरक, कुम्भक और रेचक के भेद से तीन प्रेरणाएँ समझनी चाहिये। इस प्रकार जहाँ बारह प्रेरणाओं के अभ्यास का विधान किया गया है, वहाँ चार-चार प्राणायाम करने की विधि समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि रात के पहले और पिछले पहरों में ध्यानपूर्वक चार-चार प्राणयामों का नित्य अभ्यास करना योगी के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।