महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 51-68
अष्टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
गन्धर्वशिरोमणे ! जो घी पाने की इच्छा रखकर गधी के दूध को मथता है, उसे वहाँ विष्ठा ही दिखायी देती है । उसे न तो वहाँ मक्खन ही मिलता है और न घी ही। इसी प्रकार जो वेदों का अध्ययन करके भी वेद्य और अवेद्य का तत्व नहीं जानता, वह मूढ़बुद्धि मानव केवल ज्ञान का बोझ ढोने वाला माना गया है। मनुष्य को सदा ही तत्पर होकर अन्तरात्मा के द्वारा इन दोनों प्रकृति और पुरूष का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । जिससे बारंबार उसे जन्म–मृत्यु के चक्कर में न पड़ना पडे़। संसार में जन्म और मरण की परम्परा निरन्तर चलती रहती है—ऐसा सोचकर वैदिक कर्मकाण्ड में बताये हुए सभी कर्मों और उनके फलों को विनाशशील जानकर उनका परित्याग करके मनुष्य को यहाँ अक्षय धर्मका आश्रय लेना चाहिये। कश्यपनन्दन ! जब साधक प्रतिदिन परमात्मा के स्वरूप का विचार एवं चिन्तन करने लगता है, जब वह प्रकृति के संसर्ग से रहित होकर छब्बीसवें तत्वरूप परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है। मूढ़बुद्धि मानव उस आत्मा के सम्बन्ध में द्वैतभाव से युक्त धारणा रखते हुए कहते हैं—‘सनातन अव्यक्त परमात्मा दूसरा है और पचीसवाँ तत्वरूप जीवात्मा दूसरा, परंतु साधु पुरूष उन दोनों का एक मानते हैं। वे जन्म और मृत्यु के भय से रहित होकर परमपद पोने की इच्छा रखने वाला सांख्यवेत्ता और योगी जीवात्मा और परमात्मा को एक-दूसरे से भिन्न नहीं मानते हैं । जीव और ईश्वर का अभेद बताने वाला जो यह पूर्वोक्त दर्शन अथवा साधुमत है, उसका वे भी अभिनन्दन करते ही हैं। विश्वावसुने कहा— ब्राह्मणशिरोमणे ! आपने जो यह पचीसवें तत्वरूप जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न बताया है, उसमें यह संदेह उठता है कि जीवात्मा वास्तव में परमात्मा से अभिन्न है या नहीं ? अत: आप इस बात का स्पष्टरूप से वर्णन करें। मैंने मुनिवर जैगीषव्य, असित, देवल, ब्रह्मार्षि पराशर, बुद्धिमान् वार्षगण्य, भृगु, पंचशिख, कपिल, शुक, गौतम, आर्ष्टिषेण, महात्मा गर्ग, नारद, आसुरि, बुद्धिमान् पुलस्त्य, सनत्कुमार, महात्मा शुक्र तथा अपने पिता कश्यपजी के मुख से भी पहले इस विषय का प्रतिपादन सुना था। तदनन्तर रूद्र, बुद्धिमान् विश्वरूप, अन्यान्य देवता, पितर तथा दैत्यों से भी जहाँ-तहाँ से यह सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । वे सब लोग ज्ञेय तत्व को पूर्ण और नित्य बतलाते हैं। ब्रह्माणदेव ! अब मैं इस विषय में आपकी बुद्धि से किये गये निर्णय को चाहता हूँ; क्योंकि आप विद्वानों में श्रेष्ठ, शास्त्रों के प्रगल्भ पण्डित और अत्यन्त बुद्धिमान् हैं। ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसे आप न जानते हों । वैदिक ज्ञान के तो आप भण्डार ही माने जाते हैं । ब्रह्मान् ! देवलोक और पितृलोक में भी आपकी ख्याति है। ब्रह्मालोक में गये हुए महर्षि भी आपकी महिमा का वर्णन करते हैं । तपने वाले तेजस्वी ग्रहों के पति अदितिनन्दन सनातन भगवान् सूर्य ने आपको वेद का उपदेश किया है। ब्रह्मान् ! याज्ञवल्क्य ! आपने सम्पूर्ण सांख्य तथा योगशास्त्र का भी विशेष ज्ञान प्राप्त किया है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि आप पूर्ण ज्ञानी हैं और सम्पूर्ण चराचर जगत् को जानते हैं; अत: मैं माखनमय घी के समान स्वादिष्ट एवं सारभूत वह तत्वज्ञान आप के मुख से सुनना चाहता हूँ।
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