महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 69-82

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्‍टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 69-82 का हिन्दी अनुवाद

याज्ञवल्‍क्‍यजी ने कहा—अर्थात् मैंने उत्‍तर दिया—गन्धर्वशिरोमणे ! आपको मैं नि:संदेह सम्‍पूर्ण ज्ञानों को धारण करने वाली मेधा शक्ति से सम्‍पन्‍न मानता हूँ । राजन् ! आप सब कुछ जानते हुए भी मुझसे प्रश्‍न करते और मेरे विचार को जानना चाहते हैं; इसलिये मैंने जैसा सुना है, वह बताता हूँ सुनिये। गन्‍धर्व ! प्रकृति जड है, इसलिये उसे पचीसवाँ तत्‍व—जीवात्‍मा तो जानता है; किंतु प्रकृति जीवात्‍मा को नहीं जानती। सांख्‍य और योग के तत्‍वज्ञानी विद्वान् श्रुति में किये हए निरूपण के अनुसार जल में प्रतिबिम्बित होने वाले चन्‍द्रमा के समान प्रकृति में ज्ञानस्‍वरूप जीवात्‍मा के बोध का प्रतिबिम्‍ब पड़ने से उस प्रकृति को प्रधान कहते हैं। निष्‍पाप गन्‍धर्व ! जीवात्‍मा जाग्रत् आदि अवस्‍थाओं में सब कुछ देखता है । सुषुप्ति और समाधि अवस्‍था में कुछ भी नहीं देखता है तथा परमात्‍मा सदा ही छब्‍बीसवें तत्‍वरूप अपने-आपको, पचीसवें तत्‍वरूप जीवात्‍मा को और चौबीसवें तत्‍वरूप प्रकृति को भी देखता रहता है। किंतु यदि जीवात्‍मा यह अभिमान करता है कि मुझसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है तो जो परमात्‍मा उसे निरन्‍तर देखता है, उसे वह समझता हुआ भी नहीं समझता। तत्‍वज्ञानी मनुष्‍यों को चाहिये कि वे प्रकृति को आत्‍मभाव से ग्रहण न करें। जैसे मत्‍स्‍य जल का अनुसरण करता है, परंतु अपने को उससे भिन्‍न ही मानता है, उसी प्रकार मनुष्‍य उसकी प्रवृत्ति के अनुसार स्‍वयं भी प्रवृत्‍त होवे; परंतु प्रकृति को अपना स्‍वरूप न माने। जैसे मछली जल में रहती हुई भी उस जल को अपने से भिन्‍न समझती है, उसी प्रकार यह जीवात्‍मा प्राकुत शरीर में रहकर भी प्रकृति से अपने को भिन्‍न समझता है तथापि वह शरीर के प्रति स्‍नेह, सहवास और अभिमान के कारण जब परमात्‍मा के साथ अपनी एकता का अनुभव नहीं रकता है, तब काल के समुद्र में डूब जाता है। परंतु जब वह समत्‍वबुद्धि से युक्‍त हो अपनी और परमात्‍मा की एकता को समझ लेता है, तब उस काल-समुद्र से उसका उद्धार हो जाता है। जब द्विज इस बात को समझ लेता है कि मैं अन्‍य हूँ और यह प्राकृत शरीर अथवा अनात्‍म-जगत् मुझसे सर्वथा भिन्‍न है, तब वह प्रकृति के संसर्ग से रहित हो छब्‍बीसवें तत्‍व परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है। राजन् ! परमात्‍मा भिन्‍न है और जीवात्‍मा भिन्‍न; क्‍योंकि परमात्‍मा जीवात्‍मा का आश्रय है; परंतु ज्ञानी संत-महात्‍मा उन दोनों को एक ही देखते और समझते हैं। कश्‍यपनन्‍दन ! जन्‍म और मृत्‍यु के भय से डरे हुए योग और सांख्‍य के साधक भगवत्‍परायण हो शुद्ध भाव से छब्‍बीसवें तत्‍व परमात्‍मा दर्शन करते हुए जीवात्‍मा और परमात्‍मा को एक समझते हैं और इस अभेद-दर्शन का सदा अभिनन्‍दन ही करते हैं। जब जीवात्‍मा प्रकृति के संसर्ग से रहित हो परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है, तब वह सर्वज्ञ विद्वान् होकर इस संसार में पुनर्जन्‍म नहीं पाता है। निष्‍पाप गर्न्‍धवराज ! इस प्रकार मैंने तुमसे जड प्रकृति, चेतन जीवात्‍मा और बोधस्‍वरूप परमात्‍मा का श्रुति के अनुसार यथावत् रूप से निरूपण किया है। कश्‍यपनन्‍दन ! जो मनुष्‍य जीवात्‍मा को और प्रकृति आदि जडवर्ग को पृथक्-पृथक् नहीं जानता, मंगलकारी तत्‍व पर दृष्टि नहीं रखता, केवल (प्रकृति-संसर्ग से रहित), अकेवल (प्रकृति-संसर्ग से युक्‍त), सब के आदिकरण जीवात्‍मा तथा पर ब्रह्मा परमात्‍मा को भी यथार्थरूप से नहीं जानता (वह आवागमन के चक्‍कर में पड़ा रहता है ) ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।