महाभारत सभा पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-18

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एकाशीतितम (81) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्‍ट्र की चिन्‍ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

वैशम्‍पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! अब पाण्‍डव जूए में हारकर वन में चले गये, तब राजा धृतराष्‍ट्र को बड़ी चिन्‍ता हुई। महाराज धृतराष्‍ट्र को लंबी साँस खींचते और अद्विग्रचित्‍त होकर चिन्‍ता में डूबे हुए देख संजय ने इस प्रकार कहा। संजय बोले—पृथ्‍वीनाथ ! यह धन-रत्‍नों से सम्‍पन्‍न वसुधा का राज्‍य पाकर और पाण्‍डवों पाण्‍डवों को अपने देश से निकालकर अब आप क्‍यों शोकमग्र हो रहे हैं ? धृतराष्‍ट्रने कहा—जिन लोगों का युद्धकाल बलवान् महारथी पाण्‍डवों से वैर होगा, वे शोकमग्र हुए बिना कैसे रह सकते हैं ? संजय बोले—राजन् ! यह आपकी अपनी ही की हुई करतूत है, जिससे यह महान् वैर उपस्थित हुआ है और इसी के कारण सम्‍पूर्ण जगत् का सगे-सम्‍बन्धियों सहित विनाश हो जायेगा। भीष्‍म, द्रोण और विदुर ने बार-बार मना किया तो भी आपके मूढ़ और निर्लज पुत्र दुर्योधन ने सूतपुत्र प्रातिकामी को यह आदेश देकर भेजा कि तुम पाण्‍डवों की प्‍यारी पत्‍नी धर्मचारिणी द्रौपदी को सभा में ले आओ। देवता लोग जिस पुरूष को पराजय देना चाहते हैं, उसकी बुद्धि ही पहले हर लेते हैं, इससे व‍ह सब कुछ उल्‍टा ही देखने लगता है । विनाशकाल उपस्थित होने पर जब बुद्धि मलिन हो जाती हैं, उस समय अन्‍याय ही न्‍याय के समान जान पड़ता है और वह हृदय से किसी प्रकार नहीं निकलता। उस समय उस पुरूष के विनाश के लिये अनर्थ ही अर्थरूप से और अर्थ भी अनर्थ्‍ रूप से उसके सामने उपस्थित होते हैं और निश्‍चय ही अर्थरूप में आया हुआ अनर्थ ही उसे अच्‍छा लगता है। काल डंडा या तलवार लेकर किसी का सिर नहीं काटता । काल का बल इतना ही है कि वह प्रत्‍येक वस्‍तु के विषय में मनुष्‍य की विपरीत बुद्धि कर देता है। पांचाल राजकुमारी द्रौपदी तपस्विनी है । उसका जन्‍म किसी मानवी स्‍त्री के गर्भ से नहीं हुआ है, वह अग्नि के कुल में उत्‍पन्‍न हुई और अनुपम सुन्‍दरी है । वह सब धर्मों को जानने वाली तथा यशस्विनी है । उसे भरी सभा में खींचकर लाने वाले दुष्‍टृों ने भयंकर तथा रोंगटे खड़े कर देने वाले घमासान युद्ध की सम्‍भावना उत्‍पन्‍न कर दी है । अधर्मपूर्वक जूआ खेलने वाले दुर्योधन के सिवा कौन है, जो द्रौपदी को सभा में बुला सके । सुन्‍दर शरीर वाली पांचाल राजकुमारी स्‍त्रीधर्म से युक्‍त (रजस्‍वला) थी । उसका वस्‍त्र रक्‍त से सना हुआ था । वह एक ही साड़ी पहने हुए थी । उसने सभा में आकर पाण्‍डवों को देखा । उन पाण्‍डवों के धन, राज्‍य, वस्‍त्र और लक्ष्‍मी सब का अपहरण हो चुका था । वे सम्‍पूर्ण मनोवाच्छित भोगों से वच्चित हो दाससभा को प्राप्‍त हो गये थे । धर्म के बन्‍धन में बँधे रहने के कारण वे पराक्रम दिखाने में भी असमर्थ- से हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर कृष्‍णा क्रोध और दु:ख में डूबी गयी । वह तिरस्‍कार के योग्‍य कदापि न थी, तो भी कौरवों की सभा में दुर्योधन और कर्ण ने उसे कटू वचन सुनाये। राजन् ! ये सारी बातें मुझे महान् दु:ख को निमन्‍त्रण देने वाली जान पड़ती हैं। धृतराष्‍ट्रने कहा—संजय ! द्रौपदी के उन दीनतापूर्ण नेत्रों द्वारा यह सारी पृथ्‍वी दग्‍ध हो सकती थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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