महाभारत सभा पर्व अध्याय 81 श्लोक 19-39
एकाशीतितम (81) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
संजय ! उसके अभिशाप से मेरे सभी पुत्रों का आज ही संहार हो जाता, परंतु उसने सब कुछ चुपचाप सह लिया । जिस समय रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली पाण्डवों की धर्मपरायणा धर्मपत्नी कृष्णा सभा में लायी गयी, उस समय वहाँ उसे देखकर भारतवंश की सभी स्त्रियाँ गान्धारी के साथ मिलकर बडे़ भयाजनक स्वर से विलाप एवं चीत्कार करने लगीं। ये सारी स्त्रियाँ प्रजावर्ग की स्त्रियाँ के साथ मिलकर रात दिन सदा इसी के लिये शोक करती रहती हैं । उस दिन द्रौपदी का वस्त्र खींचे जाने के कारण सब ब्राह्माण कुपित हो उठे थे, अत: सायंकाल हमारे घरों में उन्होंने अग्निहोत्र तक नहीं किया। उस समय प्रलयकालीन मेघों की भयानक गर्जना के समान भारी आवाज के साथ बडे़ जोर की आँधी चलने लगी । वज्रपात का-सा अत्यन्त कर्कश शब्द होने लगा । आकाश से उल्काएँ गिरने लगीं तथा राहु ने बिना पर्व के ही सूर्य को ग्रस लिया और प्रजा के लिये अत्यन्त घोर भय उपस्थित कर दिया। इसी प्रकार हमारी रथशालाओं में आग लग गयी और रथों की ध्वजाएँ जलकर खाक हो गयीं, जो भरतवंशियों के लिये अमड्रल की सूचना देने वाली थीं। दुर्योधन के अग्निहोत्र गृह में गीदडियाँ आकर भयंकर स्वर से हुँआ-हुँआ करने लगी । उनकी आवाज सुनते ही चारों दिशाओं में गधे रेंकने लगे। संजय ! यह सब देखकर द्रोण के साथ भीष्म, कृपाचार्य, सोमदत्त और महामना बाह्रीक वहाँ से उठकर चल गये । तब मैंने विदुर की प्रेरणा से वहाँ यह बात कही—‘मैं कृष्णा को मनोवाछित वर दूँगा । वह जो कुछ चाहे, माँग सकती है’। तब वहाँ पांचाली ने यह वर मांगा कि पाण्डव लोग दासभाव से मुक्त हो जायँ । मैंने भी रथ और धनुष आदि के सहित पाण्डवों को उनकी समस्त सम्पति के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट जाने की आज्ञा दे दी थी। तदनन्तर सब धर्मो के ज्ञाता परम बुद्धिमान विदुर ने कहा-‘भरतवंशियो ! यह कृष्णा जो तुम्हारी सभा में लायी गयी, यही तुम्हारे विनाश का कारण होगा । यह जो पाचाल राज की पुत्री है, वह परम उत्तम लक्ष्मी ही है । देवताओं की आज्ञा से ही पाचाली इन पाण्डवों की सेवा करती है। ‘कुन्ती के पुत्र अमर्ष में भरे हुए है । द्रौपदी को जो यहाँ इस प्रकार क्लेश दिया गया है, इसे वे कदापि सहन नहीं करेंगे । सत्यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्ण से सुरक्षित महान् धनुर्धर वृष्णिवंशी अथवा महारथी पांचाल वीर भी इसे नहीं सहेंगे । अर्जुन पांचाल वीरों से घिरे हुए अवश्य आयँगे। ‘उनके बीच में महाधनुर्धर महाबली भीमसेन होंगे, जो दण्डपाणि यमराज की भाँति गदा घुमाते हुए युद्ध के लिये आयँगे। ‘उस समय परम बुद्धिमान अर्जुन के गाण्डीव धनुष की टंकार सुनकर और भीमसेन की गदा का महान् वेग देखकर कोई भी राजा उनका सामना करने में समर्थ न हो सकेंगे। ‘अत: मुझे तो पाण्डवों के साथ सदा शान्ति बनाये रखने के ही नीति अच्छी लगती है । उनके साथ युद्ध करना मुझे पसंद नही है । मैं पाण्डवों को सदा ही कौरवों से अधिक बलवान् मानता हूँ। ‘क्योकि महान् तेजस्वी और बलवान् राजा जरासंघ को भीमसेन ने बाहुरूपी शस्त्र से ही युद्ध में मार गिराया था। ‘भरतवंश शिरोमणे ! अत: पाण्डवों के साथ आप को शान्ति ही बनाये रखनी चाहिये । दोनों पक्षों के लिये यही उचित है । आप नि:शंक होकर यही उपाय करें। ‘महाराज ! ऐसा करने पर आप परम कल्याण के भागी होंगे ।‘ संजय ! इस प्रकार विदुर ने मुझसे धर्म और अर्थयुक्त बातें कही थी; किंतु पुत्र का हित चाहने वाला होकर भी मैंने उनकी बात नहीं मानी।
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