श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 17-23
एकादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4)
भगवान विष्णु ने अपने स्वरुप में एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत् के कल्याण के लिये बहुत-से कलावतार ग्रहण किये हैं। विदेहराज! हंस, दत्तात्रेय, सनद-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभ के रूप अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कार के साधनों का उपदेश किया है। उन्होंने ही हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरों का संहार करके उन लोगों के द्वारा चुराये हुए वेदों का उद्धार किया है । प्रलय के समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियों की—धान्यादी की रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वी का रसातल से उद्धार करते समय हिरण्याक्ष का संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान ने अमृत-मन्थन का कार्य सम्पन्न करने के लिये अपनी पीठ पर मन्द्राचल धारण किया और उन्हीं भगवान विष्णु ने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त राजेन्द्र को ग्राह से छुड़ाया ।
एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। वे जब कश्यप ऋषि के लिये समिधा ला रहे थे तो थककर गाय के खुर से बने हुए गड्ढ़े में गिर पड़े, मानो समुद्र में गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वस्त्रासुर को मारने के कारण जब इन्द्र को ब्रम्हहत्या लगी और वे उसके भय से भागकर छिप गये, तब भगवान ने उस हत्या से इन्द्र की रक्षा की; और जब असुरों ने अनाथ देवांगनाओं को बंदी बना लिया, तब भी भगवान ने ही उन्हें असुरों के चंगुल से छुड़ाया। जब हिरण्यकशिपु के कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषों को भय पहुँचने लगा तब उनको निर्भय करने के लिये भगवान ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपु को मार डाला। उन्होंने देवताओं की रक्षा के लिये देवासुर संग्राम में दैत्यपतियों का वध किया और विभिन्न मन्वन्तरों में अपनी शक्ति से अनेकों कलावतार धारण करके त्रिभुवन की रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचना के बहाने इस पृथ्वी को दैत्यराज बलि से छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओं को दे दिया । परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। परशुरामजी तो हैहय-वंश का प्रलय करने के लिये मानो भृगुवंश में अग्नि रूप से ही अवतीर्ण हुए थे। उन्हीं भगवान ने रामावतार में समुद्र पर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लंका को मटियामेट कर दिया। उनकी कीर्ति समस्त लोकों के मल को नष्ट करने वाली है। सीतापति भगवान राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं । राजन्! अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिये वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान ही बुद्ध के रूप में प्रकट होंगे और यज्ञ के अनाधिकारियों को यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों से मोहित कर लेंगे और कलियुग के अन्त में कल्कि-अवतार लेकर वे ही शूद्र राजाओं का वध करेंगे । महाबाहु विदेहराज! भगवान की कीर्ति अनन्त है। महात्माओं ने जगत्पति भगवान के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मों का प्रचुरता से गान भी किया है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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