श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 26-34
तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः (2)
उस समय कंस के डर से पिता वसुदेवजी ने उन्हें नन्दबाबा के व्रज में पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजी के साथ ग्यारह वर्ष तक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रज के बाहर किसी पर प्रकट नहीं हुआ। यमुना के उपवन में, जिसके हरे-भरे वृक्षों पर कलरव करते हुए पक्षियों के झुंड-के-झुंड रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्ण बछड़ों को चराते हुए ग्वालबालों की मण्डली के साथ विहार किया था। वे व्रजवासियों की दृष्टि आकृष्ट करने के लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने-से लगते, कभी हँसते और कभी सिंहशावक के समान मुग्ध दृष्टि से देखते। फिर कुछ बड़े होने पर वे सफ़ेद बैल और रंग-बिरंगी शोभा की मूर्ति गौओं को चराते हुए अपने साथी गोपों को बाँसुरी बजा-बजाकर रिझाने लगे। इसी समय जब कंस ने उन्हें मारने के लिये बहुत-से मायावी और मनमाना रूप धारण करने वाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल-ही-खेल में भगवान् ने मार डाला—जैसे बालक खिलौनों को तोड़-फोड़ डालता । कालियनाग का दमन करके विष मिला हुआ जल पीने से मरे हुए ग्वालबालों और गौओं को जीवित कर उन्हें कालियदह का निर्दोष जल पीने की सुविधा दी। भगवान् श्रीकृष्ण ने बढ़े हुए धन का सद्व्यय कराने की इच्छा से श्रेष्ठ ब्राम्हणों के द्वारा नन्दबाबा से गोवर्धन पूजा रूप गोयज्ञ करवाया। भद्र! इससे अपना मान भंग होने के कारण जब इन्द्र ने क्रोधित होकर व्रज का विनाश करने के लिये मूसलधार जल बरसना आरम्भ किया, तब भगवान् ने करुणावश खेल-ही-खेल में छत्ते के समान गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियों की तथा उनके पशुओं की रक्षा की। सन्ध्या के समय जब सारे वृन्दावन में शरत् के चन्द्रमा की चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियों के मण्डल की शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-