श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 29-36
तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः (4)
श्रीशुकदेवजी ने कहा—जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरि ने ब्राम्हणों के शाप रूप काल के बहाने अपने कुल का संहार कर अपने श्रीविग्रह को त्यागते समय विचार किया। ‘अब इस लोक से मेरे चले जाने पर संयमी शिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं। उद्धव मुझसे अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अतः लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहे’। वेदों के मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधियोग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे। कुरुश्रेष्ठ परीक्षित्! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ाने वाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषों के लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजी के मुख से उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होने का समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान् ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजी के चले जाने पर प्रेम से विह्वल होकर रोने लगे। इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुना तट से चलकर कुछ दिनों में गंगाजी के किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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