श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-13
तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः (5)
विदुरजी का प्रश्न और मैत्रेयजी का सृष्टि क्रम वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वार क्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए ह्रदय वाले विदुरजी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा।
विदुरजी ने कहा—भगवन्! संसार में सब लोग सुख के लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःख की वृद्धि ही होती है। अतः इस विषय में क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये। जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुःखी हैं, उन पर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं। साधुशिरोमणि! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधन का उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करने से भगवान् अपने भक्तों के भक्तिपूत ह्रदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरुप का अपरोक्ष अनुभव कराने वाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं। त्रिलोकी के नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टि की रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् के जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस ब्रम्हाण में अन्तर्यामी रूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैं—वह सब रहस्य आप हमें समझाइये। ब्राम्हण, गौ और देवताओं के कल्याण के लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये।
यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता। हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियों के स्वामी श्रीहरि ने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वत से बाहर के भोगों को, जिसमें ये सब प्रकार के प्राणियों के अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्वों से रचा है। द्विजवर! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजा के स्वभाव, कर्म, रूप और नामों के भेद की किस प्रकार रचना की है ? भगवन्! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्ण कथामृत के प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प-सुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है। उन तीर्थपाद श्रीहरि के गुणानुवाद से तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्यों के कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसार चक्र में डालने वाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं। भगवन्! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छा से ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषय सुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है। यह भगवत्कथा की रूचि श्रद्धालु पुरुष के ह्रदय में जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयों से उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणों के निरन्तर चिन्तन से आनन्द मग्न हो जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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