श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 14-28
तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः (5)
मुझे तो उन शोचनीयों के भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषों के लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापों के कारण श्रीहरि की कथाओं से विमुख रहते हैं। हाय! काल भगवान् उनके अमूल्य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तन में लगे रहते हैं। मैत्रेयजी! आप दीनों पर कृपा करने वाले हैं; अतः भौर जैसे फूलों में से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओं में से इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्र-कीर्ति श्रीहरि की कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याण के लिये सुनाइये। उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारों के द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये। श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब विदुरजी ने जीवों के कल्याण के लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा।
श्रीमैत्रेयजी बोले—साधुस्वभाव विदुरजी! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान् में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा। आप श्रीव्यासजी के औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्य भाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं। आप प्रजा को दण्ड देने वाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषि का शाप होने के कारण ही आपने श्रीव्यासजी के वीर्य से उनके भाई विचित्रवीर्य की भोगपत्नी दासी के गर्भ से जन्म लिया । आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं। इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये योगमाया के द्वारा विस्तारित हुई भगवान् कि विभिन्न लीलाओं का क्रमशः वर्णन करता हूँ। सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य! सृष्टिकाल में अनेक् वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी।
वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझने लगे। वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्त्याँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था। इस द्रष्टा और दृश्य का अनुसन्धान करने वाली शक्ति ही—कार्यकारण रूपा माया है। महाभाग विदुरजी! इस भावाभाव रूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान् ने इस विश्व का निर्माण किया है। काल शक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुष रूप से उसमें चिदाभास रूप बीज स्थापित किया। तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महतत्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञान स्वरुप और अपने में सूक्ष्म रूप से स्थित प्रपंच की अभिव्यक्ति करने वाला था। फिर चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महतत्व ने भगवान् की दृष्टि पड़ने पर इस विश्व की रचना के लिये अपना रूपान्तर किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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