श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 57-64
दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः(13) (पूर्वार्ध)
परीक्षित्! भगवान का स्वरुप तर्क से परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयं प्रकाश, आनन्दस्वरुप और माया से अतीत है। वेदान्त भी साक्षत् रूप से उनका वर्णन करने में असमर्थ हैं, इसलिए उससे भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरुप ब्रम्ह का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रम्हाजी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि भगवान के दिव्यस्वरुप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँ तक कि वे भगवान के उन महिमामय रूपों को देखने में भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रम्हा के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया । इससे ब्रम्हाजी को बाह्यज्ञान हुआ। वे मानों मरकर फिर जी उठे। सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्ट से अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा । फिर ब्रम्हा जी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिए एक-सा प्यारा है। जिधर देखिये, उधर ही जीवों को जीवन देनेवाले फल और फूलों से लदे हुए, हरे-हरे पत्तों से लहलहाते हुए वृक्षों की पाँतें शोभा पा रही हैं । भगवान श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण वृन्दावनधाम में क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभाव से ही परस्पर दुस्त्य्ज वैर रखने वाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रों के सामान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं । ब्रम्हाजी ने वृन्दावन का दर्शन करने के बाद देखा कि अद्वितीय परब्रम्ह गोपवंश के बालकका-सा नाट्य कर रहा है। एक होने पर भी उसने सखा हैं, अनन्त होने पर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होने पर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ों को ढूँढ रहा है। ब्रम्हाजी ने देखा कि जैसे भगवान श्रीकृष्ण पहले अपने हाथ में दही-भात का कौर लिये उन्हें ढूंढ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोज में लगे हैं । भगवान को देखते ही ब्रम्हाजी अपने वाहन हंस पर से कूद पड़े औरर सोने के समान चमकते हुए अपने शरीर से पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटों के अग्रभाग से भगवान के चरण-कमलों का स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्द के आँसुओं की धारा से उन्हें नहला दिया । वे भगवान श्रीकृष्ण की पहले देखी हुई महिमा का बार-बार स्मरण करते, उनके चरणों पर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देर तक वे भगवान के चरणों में ही पड़े रहे । फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रों के आँसू पोंछे। प्रेम और मुक्ति के एकमात्र उद्गम भगवान को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अंजलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रता के साथ गद्गद वाणी से वे भगवान की स्तुति करने लगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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