श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 1-6

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दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः(14) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद

ब्रम्हाजी के द्वारा भगवान की स्तुति

ब्रम्हाजी ने स्तुति की—प्रभो! एकमात्र आप ही स्तुति करने योग्य हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर स्थिर बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है आपके गले में घुँघची की माला, कानों में मकराकृति कुण्डल तथा सिर पर मोर पंखों का मुकुट है, इन सबकी कान्ति से आपके मुख पर अनोखी छटा छिटक रही है। वक्षःस्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्ही-सी हथेली पर दही-बात का कौर। बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में में आपकी पहचान बताने वाली बाँसुरी शोभा पा रही है। आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल-बालक का सुमधुर वेष। (मैं और कुछ नहीं जानता; बस, मैं तो इन्हीं चरणों पर निछावर हूँ) । स्वयं-प्रकाश परमात्मन्! आपका यह श्रीविग्रह भक्तों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करने वाला है। यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान् स्वरुप मुझ पर आपका साक्षात् कृपा-प्रसाद है। मुझे अनुगृहीत करने के लिए ही आपने इसे प्रकट किया है। कौन कहता है कि यह पंचभूतों की रचना है ? प्रभो! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्वमय है। मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता। फिर आत्मा-नन्दानुभवस्वरुप साक्षात् आपकी ही महिमा को तो कोई एकाग्रमन से भी कैसे जान सकता है । प्रभो! जो लोग ज्ञान के लिए प्रयत्न न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषों के द्वारा गयी हुई आपकी लीला-कथा का , जो उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर, वाणी और मन से विनयावनत होकर सेवन करते हैं—यहाँ तक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते—प्रभो! यद्यपि आप पर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आप पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेम के अधीन हो जाते हैं । भगवन्! आपकी भक्ति सब प्रकार से कल्याण का मूलस्त्रोत—उद्गम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये श्रम उठाते और दुःख भोगते हैं, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं—जैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं ।

हे अच्युत! हे अनन्त! इस लोकों में पहले भी बहुत-से योगी हो गये हैं। जब उन्हें योगादि के द्वारा आपकी प्राप्ति न हुई, तब उन्होंने अपने लौकिक और वैदिक समस्त कर्म आपके चरणों में समर्पित कर दिये। उन समर्पित कर्मों से तथा आपकी लीला-कथा से उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त हुई। उस भक्ति से ही आपके स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमता से आपके परमपद की प्राप्ति कर ली । हे अनन्त! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान कठिन होने पर भी निर्गुण स्वरुप की महिमा इन्द्रियों का प्रत्याहार करके शुद्धान्तःकरण से जानी जा सकती है। (जानने की प्रक्रिया यह है कि) विशेष आकर के परित्यागपूर्वक आत्माकार अन्तःकरण का साक्षात्कार किया जाय। यह आत्माकार घट-पटादि रूप के समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरण का भंगमात्र है। यह साक्षात्कार ‘यह ब्रम्ह है’, ‘मैं ब्रम्ह को जानता हूँ’ इस प्रकार नहीं, किन्तु स्वयंप्रकाश रूप से ही होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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