श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 84 श्लोक 38-50
दशम स्कन्ध: चतुरशीतितमोऽध्यायः(84) (उत्तरार्ध)
वसुदेवजी! विचारवान् पुरुष को चाहिये की यज्ञ, दान आदि के द्वारा धन की इच्छा को, ग्रहस्थोचित भोगों द्वारा स्त्री-पुत्र की इच्छा को और कालक्रम से स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैं—इस विचार से लोकैषणा को त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घर में रहते हुए ही तीनों प्रकार की एषाणाओं—इच्छाओं का परित्याग करके तपोवन का रास्ता लिया करते थे । समर्थ वसुदेवजी! ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य—ये तीनों देवता, ऋषि और पितरों का ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणों से छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और संतानोत्पत्ति से। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसार का त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है । परम बुद्धिमान वसुदेवजी! आप अब तक ऋषि और पितरों के ऋण से तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञों के द्वारा देवताओं का ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान की शरण हो जाइये । वसुदेवजी! आपने अवश्य ही परम भक्ति से जगदीश्वर भगवान की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनों के पुत्र हुए हैं ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! परम मनस्वी वसुदेवजी ऋषियों की यह बात सुनकर, उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञ के ऋत्विजों के रूप में उनका वरण कर लिया । राजन्! जब इस प्रकार वसुदेवजी ने धर्मपूर्वक ऋषियों का वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्र में परम धार्मिक वसुदेवजी के द्वारा उत्तमोत्तम सामग्री से युक्त यज्ञ करवाये । परीक्षित्! जब वसुदेवजी ने यज्ञ की दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियों ने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलों की मालाएँ धारण कर लीं, राजा लोग वस्त्राभूषणों से खूब सुसज्जित हो गये । वसुदेवजी की पत्नियों ने सुन्दर वस्त्र, अंगराग और सोने हारों से अपने को सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्द से अपने-अपने हाथों में मांगलिक सामग्री लेकर यज्ञशाला में आयीं ।
उस समय मृदंग, पखावज, शंख, ढोल और नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। सूत और मागध स्तुतिगान करने लगे। गन्धर्वों के साथ सुरीले गले वाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं । वसुदेवजी ने पहले नेत्रों में अंजन और शरीर में मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियों के साथ उन्हें ऋत्विजों ने महाभिषेक की विधि से वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन काल में नक्षत्रों के साथ चन्द्रमा का अभिषेक हुआ था। उस समय यज्ञ में दीक्षित होने के कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए था; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणों से खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियों के साथ भलीभाँति शोभायमान हुए । महाराज! वसुदेवजी के ऋत्विज् और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्र के यज्ञ में हुए थे । उस समय भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रों के साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियों के साथ समस्त जीवों के ईश्वर स्वयं भगवान समिष्ट जीवों के अभिमानी श्रीसंकर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायणस्वरुप में शोभायमान होते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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