श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 84 श्लोक 51-64
दशम स्कन्ध: चतुरशीतितमोऽध्यायः(84) (उत्तरार्ध)
वसुदेवजी ने प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञान के—मन्त्रों के स्वामी विष्णु-भगवान की आराधना की । इसके बाद उन्होंने उचित समय पर ऋत्विजों को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया और शास्त्र के अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धन के साथ अलंकृत गौएँ, पृथ्वी और सुंदरी कन्याएँ दीं ।
इसके बाद महर्षियों ने पत्नीसंयाज नामक यज्ञांग और अवभृथ स्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नान सम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजी को आगे करके परशुरामजी के बनाये हृद में—रामहृद में स्नान किया । स्नान करने के बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियों ने वंदीजनों को अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं अन्य वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राम्हणों से लेकर कुत्तों तक को भोजन कराया । तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री-पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृंजय आदि देशों के राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं,, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणों को विदाई के रूप में बहुत-सी भेँट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति लेकर यज्ञ की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये । परीक्षित्! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान व्यासदेव, तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवों को छोड़कर जाने में अत्यन्त विरह-व्यथा का अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहार्द्र चित्त से यदुवंशियों का आलिंगन किया और बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार अपने-अपने देश को गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँ से रवाना हो गये ।परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदि नन्दबाबा एवं अन्य सभी गोपों की बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियों से अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम-परवश होकर बहुत दिनों तक वहीं रहे । वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथ का महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्द की सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबा का हाथ पकड़कर कहा ।
वसुदेवजी ने कहा—भाईजी! भगवान ने मनुष्यों के लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धन का नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ की बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोड़ने में असमर्थ हैं ।
आपने हम अकृतज्ञों के प्रति अनुपम मित्रता का व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणयों का तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटने वाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते रहेंगे । भाईजी! पहले तो बंदीगृह में बंद होने के कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है हम धन-सम्पत्ति के नशे से—श्रीमद से अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी और नहीं देख पाते । दूसरों को सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहने वाले भाईजी! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिले—इसी में उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मी से अँधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनों तक को नहीं देख पाता ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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