श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 84 श्लोक 65-71
दशम स्कन्ध: चतुरशीतितमोऽध्यायः(84) (उत्तरार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजी का ह्रदय प्रेम से गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबा की मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे । नन्दजी अपने सखा वसुदेवजी को प्रसन्न करने के लिये एवं भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के प्रेमपाश में बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीने तक वहीं रह गये। यदुवंशियों ने जी भर उनका सम्मान किया । इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकार की उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगों से नन्दबाबा को, उनके व्रजवासी साथियों को और बन्धु-बान्धवों को खूब तृप्त किया । वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियों ने अलग-अलग उन्हें अनेकों प्रकार की भेंटें दीं। उनके विदा करने पर उन सब सामग्रियों को लेकर नन्दबाबा, अपने व्रज के लिये रवाना हुए । नन्दबाबा, गोपों और गोपियों का चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों में इस प्रकार लग गया की वे फिर प्रयत्न करने पर भी उसे वहाँ से लौटा न सके। सुतरां बिना ही मन के उन्होंने मथुरा की यात्रा की ।
जब सब बन्धु-बान्धव वहाँ से विदा हो चुके, तब भगवान श्रीकृष्ण को ही एकमात्र इष्टदेव मानने वाले यदुवंशियों ने यह देखकर कि वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारका के लिये प्रस्थान किया । वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगों से वसुदेवजी के यज्ञमहोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियों के दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्रा के प्रसंगों को कह सुनाया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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