श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 85 श्लोक 13-24
दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः(85) (उत्तरार्ध)
प्रभो! सत्व, रज, तम—ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)—महत्तत्वादि परब्रम्ह परमात्मा एन, तुममें योगमाया के द्वारा कल्पित हैं । इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारों में अनुगत जान पड़ते हो। कल्पना की निवृत्ति हो जाने पर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरुप तुम्हीं तुम रह जाते हो । यह जगत् सत्व, रज, तम—इन तीनों गुणों का प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, सुख, दुःख और रंग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्मा का सूक्ष्मस्वरुप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फँसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते रहते हैं । परमेश्वर! मुझे शुभ प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि की सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी माया के वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी यों ही बीत गयी । प्रभो! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुमने इस सारे जगत् को बाँध रखा है । मैं जानता हूँ की तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवों के स्वामी हो। पृथ्वी के भारभूत राजाओं के नाश के लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझे कही भी थी । इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल! मैं अब तुम्हारे चरणकमलों की शरण में हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतों के संसारभय को मिटाने वाले हैं। अब इन्द्रियों की लोलुपता से भर पाया! इसी के कारण मैंने मृत्यु ग्रास इस शरीर में आत्मबुद्धि कर ली और तुमने, जो की परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि । प्रभो! तुमने प्रसव-गृह में ही हमसे कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी अमिन अपनी ही बनायीं हुई धर्म-मर्यादा की रक्षा करने के लिये प्रत्येक युग में तुम दोनों के द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।’ भगवन्! तुम आकाश के समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तव में तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमाया का रहस्य भला कौन जान सकता है ? सब लोग तुम्हारी कीर्ति का ही गान करते रहते हैं।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वसुदेवजी के ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनय से झुककर मधुर वाणी से कहा ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—पिताजी! हम तो आपके पुत्र ही हैं। हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रम्हज्ञान का उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं ।पिताजी! आप लोग, मैं, भैया बलरामजी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्—सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रम्हरूप ही समझना चाहिये । पिताजी! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपने में ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये हुए पंचभूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरुप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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