श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 85 श्लोक 25-37

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दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः(85) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद


जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—ये पंचमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदि में प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक थोड़े, एक और अनेक से प्रतीत होते हैं—परन्तु वास्तव में सत्तारूप से वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मा में भी उपाधियों के भेद से ही नानात्व की प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैं—इस दृष्टि से आपका कहना ठीक ही है । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर वसुदेवजी ने नानात्व-बुद्धि छोड़ दी; वे आनन्द में मग्न होकर वाणी से मौन और मन से निस्संकल्प हो गये । कुरूश्रेष्ठ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहले से ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अपने मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से वापस ला दिया ।अब उन्हें अपने उन पुत्रों की याद आ गयी, जिन्हें कंस ने मार डाला था। उनके स्मरण से देवकीजी का ह्रदय आतुर हो गया, नेत्रों से आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वर से श्रीकृष्ण और बलरामजी को सम्बोधित करके कहा । देवकीजी ने कहा—लोकाभिराम राम! तुम्हारी शक्ति मन और वाणी के परे हैं। श्रीकृष्ण! तुम योगेश्वरों के भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ की तुम दोनों प्रजापतियों के भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो । यह भी मुझे निश्चित रूप से मालूम है की जिन लोगों ने कालक्रम से अपना धैर्य, संयम और सत्वगुण खो दिया है तथा शास्त्र की आज्ञाओं का उल्लंघन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमि के भारभूत उन राजाओं का नाश करने के लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भ से अवतीर्ण हुए हो । विश्वात्मन्! तुम्हारे पुरुष रूप अंश से उत्पन्न हुई माया से गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्र से जगत् की उत्पत्ति, विकाश तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्तःकरण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ । मैं सुना है की तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देने के लिये उनकी आज्ञा तथा काल की प्रेरणा से तुम दोनों ने उनके पुत्र को यमपुरी से वापस ला दिया । तुम दोनों योगीश्वरों के भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ की तुम दोनों एरे उन पुत्रों को, जिन्हें कंस ने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! माता देवकीजी यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ने योगमाया का आश्रय लेकर सुतल लोक में प्रवेश किया । जब दैत्यराज बलि ने देखा की जगत् के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोक में पधारे हैं, तब उनका ह्रदय उनके दर्शन के आनन्द में निमग्न हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्ब के साथ आसन से उठकर भगवान के चरणों में प्रणाम किया । अत्यन्त आनन्द से भरकर दैत्यराज बलि ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी को श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उस पर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोंदक परिवार सहित अपने सिर पर धारण किया। परीक्षित्! भगवान के चरणों का जल ब्रम्हापर्यन्त सारे जगत् को पवित्र कर देता है । इसके बाद दैत्यराज बलि ने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृत के समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियों से उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदि को उनके चरणों में समर्पित कर दिया ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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