श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 45-50
दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवर्षि नारद बड़े संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और नैष्ठिक ब्रम्हचारी हैं। भगवान नारायण ने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया, तब उन्होंने बड़ी श्रद्दा से उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा ।
देवर्षि नारद ने कहा—भगवन्! आप सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप समस्त प्राणियों के परम कल्याण—मोक्ष के लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
परीक्षित्! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान नारायण को और उनके शिष्यों को नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायन के आश्रम पर गये । भगवान वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया। वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारद ने जो कुछ भगवान नारायण के मुँह से सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजी को सुना दिया । राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणी से अगोचर और समस्त प्राकृत गुणों से रहित परब्रम्ह परमात्मा का वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का कैसे प्रवेश होता है ? यही तो तुम्हारा प्रश्न था ।परीक्षित्! भगवान ही इस विश्व का संकल्प करते हैं तथा उसके आदि मध्य और अन्त में स्थित रहते हैं। वे प्रकृति और जीव दोनों के स्वामी हैं। उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीव के साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरों का निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं। जैसे गाढ़ निद्रा—सुषुप्ति में मग्न पुरुष अपने शरीर का अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान को पाकर यह जीव माया से मुक्त हो जाता है। भगवान ऐसे विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत् के कारण माया अथवा प्रकृति का रत्ती भर भी अस्तित्व नहीं है। वे ही वास्तव में अभय-स्थान हैं। उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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