श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 88 श्लोक 1-12

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दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितमोऽध्यायः(88) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितमोऽध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


शिवजी का संकटमोचन राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! भगवान शंकर ने समस्त भोगों का परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोग सम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करने वाले प्रायः धनी और भोग सम्पन्न नहीं होते । दोनों प्रभु त्याग और भोग की दृष्टि से एक-दूसरे से विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, परंतु उनके उपासकों को उनके स्वरुप के विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषय में बड़ा सन्देह है कि त्यागी की उपासना से भोग और लक्ष्मीपति की उपासना से त्याग कैसे मिलता है ? मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शिवजी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं। वे सत्व आदि गुणों से युक्त तथा अहंकार के अधिष्ठाता हैं। अहंकार के तीन भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस ।त्रिविध अहंकार से सोलह विकार हुए—दस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अतः इन सबके अधिष्ठातृ-देवताओं में से किसी एक की उपासना करने पर समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो जाती है । परन्तु परीक्षित्! भगवान श्रीहरि तो प्रकृति से परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ तथा सबके अन्तःकरणों के साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह स्वयं ही गुणातीत हो जाता है । परीक्षित्! जब तुम्हारे दादा धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके, तब भगवान से विविध प्रकार के धर्मों का वर्णन सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्न किया था । परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। मनुष्यों के कल्याण के लिये ही उन्होंने यदुवंस में अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर और उनकी सुनने की इच्छा देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—राजन्! जिस पर मैं कृपा करता हूँ, उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसके दुःखाकुल चित्त की परवा न करके उसे छोड़ देते हैं । फिर वह धन के लिये उद्दोग करने लगता है, तब मैं उसका प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होने के कारण जब धन कमाने से उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दुःख समझकर वह उधर से अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तों का आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब मैं उस पर अपनी अहैतुक कृपा की वर्षा करता हूँ । मेरी कृपा से उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्दस्वरुप परब्रम्ह की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसी से साधारण लोग मुझे छोड़कर मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं । दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं और अपने भक्तों को साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्च्रिन्खल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठाते हैं और अपने वरदाता देवताओं को भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! ब्रम्हा, विष्णु और महादेव—ये तीनों शाप और वरदान देने में समर्थ हैं; परन्तु इनमें महादेव और ब्रम्हा शीघ्र हही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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