श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 29-44

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद
भागवत के दस लक्षण

जब विराट् पुरुष को अन्न-जल ग्रहण करने की इच्छा हुई, तब कोख, आँते और नाड़ियाँ उत्पन्न हुईं। साथ कुक्षि के देवता समुद्र, नाड़ियों के देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए। जब उन्होंने अपनी माया पर विचार करना चाहा, तब ह्रदय की उत्पत्ति हुई। उससे मन रूप इन्द्रिय और मन से उसका देवता चन्द्रमा, तथा विषय, कामना और संकल्प प्रकट हुए। विराट् पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल और तेज से सात धातुएँ प्रकट हुईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु से प्राणों की उत्पत्ति हुई। श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाली है। वे विषय अहंकार से उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारों का उत्पत्ति स्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थों का बोध कराने वाली है। मैंने भगवान् के स्थूल रूप का वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहर की ओर से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महतत्व और प्रकृति—इन आठ आवरणों से घिरा हुआ है। इससे परे भगवान् का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्त से रहित एवं नित्य है। वाणी और मन की वहाँ तक पहुँच नहीं । मैंने तुम्हें भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान् की माया के द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनों को ही स्वीकार नहीं कर। वास्तव में भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्ति से ही वे सक्रीय बनते हैं। फिर तो वे ब्रम्हा का या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूप में प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं।
परीक्षित्! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सरयाएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कुष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, ग्रह, पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीसृप इत्यादि जितने भी संसार में नाम-रूप हैं, सब भगवान् के ही हैं। संसार में चर और अचर भेद से दो प्रकार के तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मों के तदनुरूप फल हैं । सत्व की प्रधानता से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणों में भी जब एक गुण दूसरे दो गुणों से अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गति के तीन-तीन भेद और हो जाते हैं। वे भगवान् जगत् के धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं। प्रलय का समय आने पर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरुप रूद्र का रूप ग्रहण करके अपने में वैसे ही लीन कर लेते हैं, वैसे वायु मेघमाला को। परीक्षित्! महात्माओं ने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान् इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करने वाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-