श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 45-51

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः (10)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 45-51 का हिन्दी अनुवाद
भागवत के दस लक्षण

सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण परमात्मा से कर्म या कर्तापन का सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो माया से आरोपित होने के कारण कर्तृत्व का निषेध करने के लिये ही है। यह मैंने ब्रम्हाजी के महाकल्प का अवान्तर कल्पों के साथ वर्णन किया है। सब कल्पों में सृष्टि-क्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्प के प्रारम्भ में प्रकृति क्रमशः महतत्वादि की उत्पत्ति होती है और कल्पों के प्रारम्भ में प्राकृत सृष्टि तो ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियों की वैकृत सृष्टि नवीन रूप से होती है। परीक्षित्! काल का परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरों का वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम पाद्म कल्प का वर्णन सावधान होकर सुनो।

शौनकजी ने पूछा—सूतजी! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोड़कर पृथ्वी के विभिन्न तीर्थों में विचरण किया था। उस यात्रा में मैत्रेय ऋषि के साथ अध्यात्म के सम्बन्ध में उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजी ने उनके प्रश्न करने पर किस तत्व का उपदेश किया ? सूतजी! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ?

सूतजी ने कहा—शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित् ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नों के उत्तर में श्रीशुकदेवजी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही अं आप लोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-