श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 34-42
द्वितीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः (7)
और भी बहुत-से प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, अरिष्टासुर आदि दैत्य, चाणूर आदि पहलवान, कुवलयापीड हाथी, कंस, कालयवन, भौमासुर, मिथ्या वासुदेव, शाल्व, द्विविद वानर, बल्वल, दन्तवक्त्र, राजा नग्नजित् के सात बैल, शम्बरासुर, विदूरथ और रुक्मी आदि तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, कैकय और सृंजय आदि देशों के राजा लोग एवं जो भी योद्धा धनुष धारण करके युद्ध के मैदान में सामने आयेंगे, वे सब बलराम, भीमसेन और अर्जुन आदि नामों की आड़ से स्वयं भगवान् के द्वारा मारे जाकर उन्हीं के धाम में चले जायँगे । समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है, आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब भगवान् देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्व को बतलाने वाली वेदवाणी को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में सत्यवती के गर्भ से व्यास के रूप में प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूप में विभाजन कर देते हैं । देवताओं के शत्रु दैत्य लोग भी वेद मार्ग का सहारा लेकर मयदानव के बनाये हुए अदृश्य वेग वाले नगरों में रहकर लोगों का सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान् लोगों की बुद्धि में मोह और अत्यन्त लोभ उत्पन्न करने वाला वेष धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत-से उपधर्मों का उपदेश करेंगे । कलियुग के अन्त में जब सत्पुरुषों के घर भी भगवान की कथा होने में बाधा पड़ने लगेगी; ब्राम्हण, क्षत्रिय तथा वैश्य पाखण्डी और शूद्र राजा हो जायँगे, यहाँ तक कि कहीं भी स्वाहा’, ‘स्वथा’ और ‘वषट्कार’ की ध्वनि—देवता-पितरों के यज्ञ श्राद्ध की बात तक नहीं सुनायी पड़ेगी, तब कलियुग का शासन करने के लिये भगवान् कल्कि अवतार ग्रहण करेंगे । जब संसार की रचना का समय होता है, तब तपस्या, नौ प्रजापति, मरीचि आदि ऋषि और मेरे रूप में; जब सृष्टि की रक्षा का समय होता है, तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओं के रूप में तथा जब सृष्टि के प्रलय का समय होता है, तब अधर्म, रूद्र तथा क्रोधवन नाम के सर्प एवं दैत्य आदि के रूप में सर्वशक्तिमान् भगवान् की माया-विभूतियाँ ही प्रकट होती हैं । अपनी प्रतिभा के बल से पृथ्वी के एक-एक धूलिकण को गिन चुकने पर भी जगत् में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान् की शक्तियों की गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम-अवतार लेकर त्रिलोकी को नाप रहे थे, उस समय उनके चरणों में अदम्य वेग से प्रकृति रूप अन्तिम आवरण से लेकर सत्यलोक तक सारा ब्राम्हण काँपने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्ति से उसे स्थिर किया था । समस्त सृष्टि की रचना और संहार करने वाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियों के आश्रय उनके स्वरुप को न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरों का तो कहना ही क्या है। आदि देव भगवान् शेष सहस्त्र मुख से उनके गुणों का गायन करते आ रहे हैं; परन्तु वे अब भी उसके अन्त की कल्पना नहीं कर सके । जो निष्कपट भाव से अपना सर्वस्व और अपने-आपको भी उनके चरणकमलों में निछावर कर देते हैं, उन पर वे अनन्त भगवान् स्वयं ही अपनी ओर से दया करते हैं और उनकी दया के पात्र ही उनकी दुस्तर माया का स्वरुप जानते हैं और उसके पार जा जाते हैं। वास्तव में ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारों के कलेवा रूप अपने और पुत्रादि के शरीर में ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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